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विजयोदया टीका
४६१ संसारमूलहेदु मिच्छत्तं सव्वधा विवज्जेहि ।
बुद्धी गुणण्णिदं पि हु मिच्छत्तं मोहिदं कुणदि ॥७२३।। 'संसारमूलहेदु” संसारस्य मूलकारणं । 'मिच्छत्तं' अश्रद्धानं । 'सन्वधा' मनोवाक्कायः । 'विवज्जेहि' वर्जय । 'बुद्धो' बुद्धि । 'गुणण्णिदं पि खु' गुणान्वितामपि । 'मिच्छत्तं' मिथ्यात्वं 'मोहिदं' मुग्धां । 'कुणदि' करोति । अत्रेदं विचार्यते । कथं प्रथमता मिथ्यात्वस्य ? न हीदं संभाव्यते असंयमादिभ्यो मिथ्यात्वं प्रथममपजातमिति कुतः ? यथा मिथ्यात्वं स्वनिमित्तसन्निधानाद्भवति, एवमसंयमादयोऽपीति का तस्य प्रथमता? अथ तद्धतुरेव दर्शनमोहः प्रथमं भवति पश्चाच्चारित्रमोहादीनीत्येतदपि असत् सदा कर्माष्टकसद्भावात् । 'एवं प्रामाण्यते सूत्रकारः 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः' इति वचने मिथ्यात्वं बन्धहेतुषु पूर्वमुपन्यस्तं बन्धपुरःसरश्च संसारः, संसारमूलहेतमिथ्यात्वमिति बुद्धि अर्थयाथात्म्यपरिच्छेदगुणसमन्वितामपि मिथ्यात्वं विपरीतां करोति । अन्ये तु वदन्ति । 'बुद्धी गुणण्णिया पि खु' शुश्रूषाश्रवणग्रहणधारणादयो बुद्धेर्गुणास्तीतुमपीति ॥७२३॥
अतद्रूपवस्तुनि तद्रूपावभासिता कथं विज्ञानस्येत्याशङ्कायां विपर्यस्तमपि ज्ञानमुदेति तन्निमित्तसद्भावादित्याचष्टे
मयतण्हियाओ उदयत्ति मया मण्णंति जह सतण्हयगा ।
तह य णरा वि असद्भदं सद्भुतं ति मण्णंति मोहेण ।।७२४॥ 'मयतण्हिया' मृगतृष्णिकाशब्देन आदित्यरश्मयो भौमेनोष्मणा संपृक्ता उच्यन्ते । ता अजलभूताः । 'मया मण्णंति उदगंति' मृगा मन्यते उदकमिति । 'यथा सतण्हगा' तृष्णासंतप्तलोचनाः । 'तह य' तथैव । मृगा
__गा०-मिथ्यात्व संसारका मूल कारण है उसका मनवचनकायसे त्याग करो; क्योंकि मिथ्यात्व गुणयुक्त बुद्धिको भी मूढ़ बना देता है ।।७२३॥
टी०-शङ्का-यहाँ विचारणीय यह है कि मिथ्यात्वको प्रथमस्थान क्यों दिया गया है ? असंयम आदिसे मिथ्यात्व पहले उत्पन्न हुआ है यह सम्भावना भी सम्भव वहीं है क्योंकि जैसे मिथ्यात्व अपने निमित्तके होनेपर होता है वैसे ही असंयम आदि भी होते हैं तब वह प्रथम क्यों? यदि कहोगे कि उसका हेतु दर्शनमोह पहले होता है पीछे चारित्रमोह आदि होते हैं तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि आठों कर्म सदा रहते हैं ?
समाधान--सूत्रकारने तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा है-'मिथ्यादर्शन अविरति, प्रमाद, कषाय और योग बन्धके कारण हैं।' यहाँ उन्होंने बन्धके कारणोंमें मिथ्यात्वको प्रथम स्थान दिया है और बन्धपूर्वक संसार होता है अतः संसारका मूल कारण मिथ्यात्व है। वह पदार्थको यथार्थ रूपसे जाननेका गुण रखने वाली बुद्धिको भी विपरीत कर देता है।
__ अन्य आचार्य ऐसा व्याख्यान करते हैं-सुननेकी इच्छा, सुनना, ग्रहण करना और धारण करना आदि बुद्धिके गुण हैं । ऐसी गुणयुक्त बुद्धिको भी मिथ्यात्व विपरीत कर देता है ।।७२३।।
. जो वस्तु जिस रूप नहीं है उसे ज्ञान उस रूप कैसे दिखलाता है ? ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं कि मिथ्यात्व रूप निमित्तके सद्भावमें ज्ञान विपरीत भी होता है
गा०—सूर्य की किरणें पृथ्वीकी ऊष्मासे मिलकर जलका भ्रम उत्पन्न करती हैं उसे मृग१. एवं सामान्यतः सू०-आ० मु० ।
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