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विजयोदया टीका
४५७ शेष । 'तिविहेण' त्रिविधेन । 'खामेदि' क्षपयति निराकरोति ॥७०९॥
अब्भहियजादहासो मत्थम्मि कदंजली कदपणामो ।
'खामेड् सव्वसंघं संवेगं संजणेमाणो ।।७१०।। 'अब्भहिदजादहासो' नितरामुपजातचित्तप्रसादः । कर्तव्यं मुमुक्षुणा यत्तत्सकलं मयानुष्ठितं इति । 'मत्थम्मि कदंजली' मस्तकन्यस्ताञ्जलि: । 'कदपणामो' कृतप्रमाणः । 'खामेदि' क्षमां ग्राहयति । 'सव्वसंघ' सर्व श्रमणगणं । 'संवेगं' धर्मानुरागं । 'संजणेमाणो' सम्यगुत्पादयन् सर्वस्य सङ्घस्य ।।७१०॥
मणवयणकायजोगेहिं पुरा कदकारिदे अणुमदे वा ।
सव्चे अवराधपदे एस खमावेमि णिस्सल्लो ॥७११॥ 'मणवयणकायजोर्योह' मनोवाक्काययोगैः । 'पुरा' पूर्व । 'कदकारिदे अणुमदे वा' कृतकारितानुमताश्च । 'सन्वे अवराधपदे' सर्वानपराधविशेषान् । 'एस' एषः । 'खमावेमि' क्षमां ग्राहयामि। "णिस्सल्लो' शल्यरहितोऽहमिति ।।७११।।
अम्मापिदुसरिसो मे खमहु खु जगसीयलो जगाधारो ।
अहमवि खमामि सुद्धो गुणसंघायस्स संघस्स ॥७१२।। 'अम्मापिदुसरिसो' मात्रा पित्रा च सदृशो । 'मे' मम 'खमदु' क्षमा करोतु । 'जगसीदलो' जगतः सर्वप्राणिलोकस्य शीतलः । 'जगाधारो' आसन्नभव्यलोकस्य आधारः । 'अहमवि खमामि' परकृतमपराधं मनसि न करोमि । 'सुद्धो' शुद्धः क्रोधादिकलङ्कविरहात् । 'गुणसंघादस्स' गुणसमुदायस्य 'संघस्स' सङ्घस्य । खमणा ॥७१२॥
संघो गुणसंघाओ संघो य विमोचओ य कम्माणं । दंसणणाणचरित्ते संघायंतो हवे संघो ॥७१३॥
सम्बन्धमें क्षपकके अन्दर जो क्रोध, मान, माया या लोभ कषाय होती है उसे सबको वह मतवचनकायसे निकाल देता है ।।७०९।।
गा०-मुमुक्षुका जो कर्तव्य है वह सब मैंने किया, इस विचारसे उस क्षपकके चित्तमें अत्यन्त प्रसन्नता होती है और धर्मानुरागको प्रकट करते हुए दोनों हाथोंकी अंजलि मस्तकसे लगाकर प्रणामपूर्वक समस्त मुनिसंघसे वह क्षमा माँगता है ।।७१०।।
गा०—कि मनवचनकाय और कृतकारित अनुमोदनासे पूर्व में किये गये सव अपराधों की मैं निःशल्य होकर क्षमा माँगता हूँ ॥७११॥
गा-गुणोंका समूहरूप यह संघ समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाला है, निकट भव्यजीवोंका आधार है। वह संघ मुझे माता-पिताके समान क्षमा प्रदान करें। मैं भी क्रोधादि दोषोंसे शुद्ध होकर किये हुए अपराधको मनसे निकाल देता हूँ ।।७१२।।
गा०-गुणोंके समूहका नाम संघ है । यह संघ कर्मोंसे छुड़ाता है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके मेलसे संघ होता हैं ॥७१३।।
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