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विजयोदया टीका
खु' वेदनामुत्पादयेदेव । 'उदरे करिस्सगं' पुरीष 'अत्यंतगं' स्थितं ॥७०२॥ एवं कृतोदरशोधनस्य क्षपकस्य योग्यं व्यापारं निर्यापकसूरिसंपाद्यमादर्शयति
जावज्जीवं सव्वाहारं तिविहं च वोसरिहिदित्ति ।
णिज्जवओ आयरिओ संघस्स णिवेदणं कुज्जा ॥७०३॥ 'जावज्जीवं' जीवितावधिकं । 'सव्वाहारं' सर्वाहारं । 'तिविहं' त्रित्रिघं अशनं, खाद्यं, स्वाद्यं च । 'वोसरिहिदित्ति' त्यजतीति । 'णिज्जवगो आयरिओ' निर्यापकः सरिः। 'संघस्स णिवेदणं कुज्जा' सचं निवेदयेत् ॥७०३॥
खामेदि तुम्ह खवओत्ति कुंचओ तस्स चेव खवगस्स ।
दावेदव्वो णेदूण सव्यसंघस्स वसधीसु ॥७०४॥ 'खामेदि' क्षमां ग्राहयति । 'तुम्ह' युष्मान् । 'खवगोत्ति' क्षपक इति । 'तस्स चेव खवगस्स' तस्यैव क्षपकस्य । 'कंचगों' प्रतिलेखनं। 'दावेदव्वो' दर्शयितव्यं । 'णेदुण' नीत्वा। 'सव्वसंघस्स वसदीए' सर्वसङ्घस्य वसतीषु ॥७०४॥ तेन सङ्घन ज्ञातक्षपकाभिप्रायेण कर्तव्यमित्याचष्टे
आराधणपत्तीयं खवयस्स व णिरुवसग्गपत्तीयं ।
काओसग्गो संघेण होइ सव्वेण कादवो ॥७०५॥ 'आराधणपत्तीगं' रत्नत्रयाराधना क्षपकस्य यथा स्यादित्येवमर्थ । 'खवगस्स णिस्वसग्गपत्तोयं क्षपकस्योपसर्गा मा भूवन्नेवमथं च । 'काओसग्गो' कायोत्सर्गः । 'संघेण सम्वण' सर्वेण सधेन । 'होवि कायव्वो' कर्तव्यो भवति ॥७०५॥
गाथामें आये उदर शब्दसे पेटका मल लेना चाहिए। उसको निकालना उदरमलका शोधन है। ऐसे महान प्रयासके द्वारा पेटके मलको निकालनेका यह कारण हे कि उदरमें रहा हुआ मल कष्ट देता है ॥७०२॥
इस प्रकार क्षपकके उदरके मलकी शुद्धि हो जानेपर निर्यापकाचार्य क्षपकके योग्य जो कार्य करते हैं उसे कहते हैं
गा०–निर्यापकाचार्य संघसे निवेदन करते हैं कि अब यह क्षपक जीवनपर्यन्तके लिए अशन, खाद्य और स्वाद्य तीनों प्रकारके सब आहारका त्याग करता है ॥७०३॥
गा०-तथा यह क्षपक आप सबसे क्षमा मांगता है। इसके प्रमाणके लिए आचार्य उस क्षपककी पिच्छिका लेकर सर्वसंघकी वसतियोंमें दिखलाते हैं। अर्थात् क्षपक सबके पास क्षमा माँगने स्वयं नहीं जा सकता, इसलिए उसकी पीछी सर्वत्र ले जाकर दिखलाते हैं कि वह आप सबसे क्षमा मांगता है ॥७०४||
क्षपकका अभिप्राय जानकर संघको क्या करना चाहिए, यह कहते हैं
गा०-क्षपककी रत्नत्रयकी आराधनापूर्ण हो और उसमें कोई विघ्न न आवे, इसके लिए सर्वसंघको कायोत्सर्ग करना चाहिए ॥७०५।।
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