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भगवती आराधना सत्थं वहलं लेवडमलेवडं च ससित्थयमसित्थं ।
छविहपाणयमेयं पाणयपरिकम्मपाओग्गं ।।६९९।। 'सत्थं' स्वच्छं एक पानकं उष्णोदकं सौवीरकं । तिन्तिणीकाफलरसप्रभृतिकं च अन्यद्वहलं । दध्यादिकं 'लेवर्ड' लेपसहितं । 'अलेवडं' अलेपसहितं यन्न हस्ततलं विलिपति । 'ससित्थगं' सिक्थसहितं, 'असिस्थगं' सिक्थरहितं । 'छद्धा' षोढा । 'पाणगमेदं' एतत्पानकं। 'पाणगपरिकम्मपाओग्गं' पानकाख्यपरिकर्मप्रायोग्यं ॥६९९॥
आयंबिलेण सिंभं खीयदि पिनं च उवसमं जादि ।
वादस्स रक्खणटुं एत्थ पयत्तं खु कादव्वं ॥७००॥ 'आयंबिलेण' आचाम्लेन । "सिभं खोयदि' श्लेष्मा क्षयमुपयाति । 'पित्तं च पित्तं च । 'उवसमं जादि' उपशममुपयाति । 'वादस्स' वातस्य । 'रक्खणटुं' रक्षणार्थ । 'एत्थ' अत्र । 'पयत्तं खु कादब्वं' प्रयलः कर्तव्यः ॥७००॥ पानभावनोत्तरकालभाविनं व्यापार दर्शयति
तो पाणएण परिभाविदस्स उदरमलसोघणिच्छाए ।
मधुरं पज्जेदव्वो मंडं व विरेयणं खवओ ॥७०१॥ __'तो' पश्चात् । 'पाणगेण' पानेन । 'परिभाविदों' भावितः क्षपकः । 'मधुरं पज्जेदव्यो' मधुरं पाययितव्यः । किमर्थं ? 'उदरमलसोधणिच्छाए' उदरगतमलनिरासाय ॥७०१॥
आणाहवत्तियादीहिं वा वि कादम्बमुदरसोधणयं ।
वेदणमुप्पादेज्ज हु करिसं अत्यंतयं उदरे ।।७०२॥ 'आणाहवत्तियादोहिं' अनुवासनादिभिः । 'कादन्वं' कर्तव्यं । 'उदरसोधणयं उदरस्थमलमुदरशब्देनोच्यते तस्य निराक्रिया उदरमलशोधना । किमर्थमेवं प्रयासेन महता मलं निराक्रियते इत्यत्राचष्टे । 'वेदणमुप्पादेज्ज
गा०-पानकके छह भेद हैं-एक भेद स्वच्छ है । जैरो गर्मजल सौवीरक । इमली आदि फलोंके रसको बहल कहते हैं । यह दूसरा भेद है। दही आदि लेवड है जो हाथसे लिप्त हो जाता है। यह तीसरा भेद है। जो हाथसे लिप्त न हो वह चौथा भेद अलेवड है। सिक्थ सहित पेय पाँचवाँ भेद है और सिक्थरहित पेय छठा भेद है। ये छह प्रकारका पानक पानक परिकर्मके योग्य है ।।६९९॥
गा०-आचाम्लसे कफका क्षय होता है, पित्त शान्त होता है और वातसे रक्षा होती है । इसलिए आचाम्लके सेवनका प्रयत्न करना चाहिए ॥७००॥
पानककी भावनाके पश्चात्का कार्य बतलाते हैं
गा--पानकका सेवन करनेवाले क्षपकको पेटके मलकी शुद्धिके लिए मांडकी तरह मधुर विरेचन पिलाना चाहिए ॥७०१॥
गा०-अनुवासन और गुदाद्वारमें वत्ती आदि चढ़ाकर पेटके मलकी शुद्धि करना चाहिए ।
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