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भगवती आराधना भत्तादीणं 'तत्ती गीदत्थेहिं वि ण तत्थ कादव्वा ।
आलोयणा वि हु पसत्थमेव कादम्विया तत्थ ॥६८५॥ 'भत्तादोणं 'तती' भक्तादिकथा । गृहीतार्थेरपि यतिभिस्तत्र क्षपकसकाशे न कर्तव्येति । 'आलोयणा विखु आलोचनागोचराद्यतिचारविषया । 'तत्थ' क्षपकसमीपे । 'पसत्यमेव कादग्वा' यथासौ न शृणोति तथा कार्या । बहुषु युक्ताचारेषु सत्सु ॥६८५॥
पच्चक्खाणपडिक्कमणुवदेसणिओगतिविहवोसरणे ।
पट्ठवणापुच्छाए उवसंपण्णो पमाणं से ॥६८६॥ प्रत्याख्यानं प्रतिक्रमणादिक । कस्य सकाशे सर्व कर्तव्यमिति यावत। यदि शक्तोऽसौ, न चेत्तदनुज्ञातस्य समीपे ॥६८६।।
तेल्लकायादसीहिं य बहुसो गंडूसया दु घेत्तव्वा ।
जिम्भाकण्णाण बलं होहिदि तुंडं च से विसदं ॥६८७।। 'तेल्लकसायादीहिं य' तैलेन कषायादिभिश्च । 'बहुसो' बहुशो । 'गंडूसगा दु' गंडूषाः । 'घेत्तव्वा' ग्राहाः । तत्र गुणं वदति-'जिन्भाकण्णाण बलं' जिह्वायाः कर्णयोश्च बलं शक्ति वचने श्रवणे च । 'होहिदि' है कि उनके मर्यादा रहित वचनोंको सुनकर क्षपककी समाधिमें बाधा हो सकती है, क्योंकि कमजोर व्यक्ति ऐसे वैसे वचन सुनकर क्रुद्ध हो सकता है अथवा संक्लेशरूप परिणाम कर सकता है॥६८॥
विशेषार्थ-टीकामें 'असंवुडाण पासं सद्दवदीणं अल्लियदु ण दादव्वं' ऐसा पाठ है। तथा 'सहवदीणं' का अर्थ नहीं किया हैं । आशाधर जीने 'शब्दपतीनां शब्दवतीनां' लिखकर उसका अर्थ 'कल-कल करने वाले' किया है।
गा०-आगमके अर्थके ज्ञाता यतियोंको भी क्षपकके पासमें भोजन आदिकी कथा नहीं करनी चाहिए और आलोचना सम्बधी अतिचारोंकी भी चर्चा नहीं करनी चाहिए। यदि करना ही हो तो बहुतसे युक्त आचार वाले आचार्योंके रहते हुए प्रच्छन्न रूपसे ही करना चाहिए जिससे क्षपक उसे न सुन सके ॥६८५॥
गा०-प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, उपदेश, नियोग-आज्ञादान, जलके सिवाय तीन प्रकारके आहारका त्याग, प्रायश्चित्त, आदि सब प्रथम स्वीकार किये आचार्यके पास ही करना चाहिए, क्योंकि जिसे उस क्षपकने अपना निर्यापक बनाया है वही उसके लिए प्रमाण होता है। किन्तु वह निर्यापकाचार्य ऐसा करने में असमर्थ हो तो उसकी अनुज्ञासे अन्य भी प्रमाण होता है ।।६८६।।
विशेषार्थ-युवत आचार वाले अनेक आचार्योंके होते हुए भी क्षपकको प्रत्याख्यान आदि प्रथम स्वीकार किये निर्यापकके पास ही करना चाहिए यह आशय उक्त गाथाका है ।
गा०–तेल और कसैले आदिसे क्षपकको बहुत बार कुल्ले करना चाहिए। इससे जीभ १. भत्ती-आ० । २. दिकं से तस्य सकाशे-आ० मु० ।
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