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विजयोदया टीका एगम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो । ण हु सो हिंडदि बहुसो सचट्ठभवे पमोत्तूण ॥६८१।।। 'सोदण उत्तमट्ठस्स साधणं तिव्वभत्तिसंजत्तो ।
जदि णोवयादि का उत्चमट्ठमरणम्मि से भत्ती ।।६८२।। सोदूण श्रुत्वा उत्तमार्थसाधनं । तीवभक्तिसंयुक्तो यदि न गच्छेत् । नैव तस्य उत्तमार्थमरणे भक्तिः ॥६८२।। उत्तमार्थमरणभक्त्यभावे दोषमाचष्टे--
जत्थ पुण उत्तमट्ठमरणम्मि भत्ती ण विज्जदे तस्स ।
किह उत्तमट्ठमरणं संपज्जदि मरणकालम्मि ॥६८३।। 'जस्स पुण' यस्य पुनः उत्तमार्थमरणे भक्तिर्न विद्यते तस्य मरणकाले कथमुत्तमार्थमरणं सम्पद्यते इति दोषः सूचितः ॥६८३॥
सद्दवदीणं पासं अल्लियदु असंवुडाण दादव्वं ।
तेसिं असंवडगिराहिं होज्ज खगयस्स असमाधी ।।६८४।। 'असंवुडाण पासं सद्दवदीणं अल्लियदु ण दादन्वं' । असंवृतानां क्षपकसमीपं ढौकनं न दातव्यं । यावद्देशस्थानां तेषां वचो न श्रूयते । कस्मादसंवृतजनसमीपागमनं निषिध्यते इत्याचष्टे-'तेसि असंवुडगिराहिं होज्ज खवयस्स असमाधी' । तेषामसंवृताभिर्वाग्भिर्भवेत्क्षपकस्य असमाधिः । क्षीणो हि जनो यत्किचिच्छत्वा कुप्यति संक्लेशमुपयाति वा ।।६८४॥
___ गा०-जो यति तीव्र भक्तिरागसे सल्लेखनाके स्थान पर जाते हैं वे देवगतिका सुख भोग कर उत्तम स्थान मोक्षको प्राप्त करते हैं ॥६८०॥
गा-जो जीव एक भवमें समाधिमरण पूर्वक करता है वह सात आठ भवसे अधिक काल तक संसारमें परिभ्रमण नहीं करता ।।६८१।। - विशेषार्थ-इन पर टीका नहीं है । पं० आशाधरने लिखा है-यहाँ ये दो गाथा परम्परा- . से सुनी जाती हैं । इन्हें विजयोदयाके कर्ता आचार्य नहीं स्वीकार करते हैं।
____ गा०-उत्तमार्थ-समाधिका साधन कोई मुनि करता है ऐसा सुनकर भी जो तीव्र भक्तिसे युक्त होकर यदि नहीं जाता तो उसकी समाधिमरणमें क्या भक्ति हो सकती है ? ॥६८२।।
समाधिमरणमें भक्ति न होने में दोष कहते हैं
गा०—जिसकी समाधिमरणमें भवित नहीं है उसका मरते समय समाधिपूर्वक मरण नहीं होता ।।६८३॥
गा०-टी०-वचन गुप्ति और वचन समितिसे रहित जो हल्ला-गुल्ला करने वाले लोग हैं उन्हें क्षपकके समीप नहीं जाने देना चाहिए। यदि जावें तो वहीं तक जावें जहाँसे उनके वचन क्षपकको सुनाई न देवें । ऐसे असंवृत जनोंका क्षपकके समीप जानेका निषेध करनेका प्रयोजन यह
१. एते गाथे श्री विजयो नेच्छति ।
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