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विजयोदया टीका
खवगपडिजग्गणाए इत्यनया गाथया अत्रैवं पदघटना 'भिक्खग्गहणादिमकुण माणेण' भिक्षाग्रहणं, निद्रा, कायमलत्यागं वाऽकुर्वता निर्यापकेण 'खवगपडिजग्गणाए' क्षपककार्यकरणे । 'अप्पा चत्तो' आत्मा त्यक्तो भवति । अशनाग्रहणान्निद्राया अभावात् कायभलानां वाऽनिराकरणान्महती निर्यापकस्य पीडा । ' तव्विवरीदो यदि' निर्यापको भिक्षां भ्रमति निद्रातिशयशरीरमलनिरासार्थ याति, 'खवगो चत्तो भवति' क्षपकस्त्यक्तो भवति ।। ६७४ ||
खवयस्स अप्पणो वा चाए चत्तो हु होइ जइधम्मो |
णाणस्स य वुच्छेदो पवयणचाओ कओ होदि || ६७५॥
'खवगस्स अप्पणी वा चाए' क्षपकस्यात्मनो वा त्यागे । 'चत्तो खु होदि जइघम्मो' त्यक्तो भवति यतिधर्मः । यतेर्धर्मो वैयावृत्त्यकरणं स परित्यक्तो भवति क्षपकमपहाय गमने । अगमने तु आवश्यकानि यतिधर्मेषु व्यक्तानि भवन्ति शक्तिवैकल्यात् । ' णाणस्स य वुच्छेदो' ज्ञानस्यापि व्युच्छेदो भवति, निर्यापकेन सह मृतिमुपयाति । 'तदो' तस्मात् । 'पवयणचागो होदि' प्रवचनत्यागो भवति । प्रवचनशब्देनागम उच्यते । प्राज्ञा हि केचिदेव' भवन्तीति चेदेकका निर्यापका अनशनादिनातिखिन्ना मृतिमुपेयुः कः शास्त्राण्युपदिशेत् कश्च धारयेद्वेति प्रवचनत्यागः ॥ ६७५ ॥
व्यसनं व्याचष्टे -
चायम्मि कीरमाणे वसणं खवयस्स अप्पणो चावि ।
खवयस्स अप्पणो वा चायम्मि हवेज्ज असमाधि || ६७६ ||
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'चायम्मि कौरमाणे' त्यागे क्रियमाणे । 'वसणं खवगस्स' क्षपकस्य दुःखं भवति, प्रतिकाराभावात् । 'अप्पणी वा वसणं' निर्यापकस्य वा व्यसनं भवति अशनादित्यागात् । असमाधिमरणं व्याचष्टे – 'चागम्मि'
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गा० - टी० - क्षपकका कार्य करते रहनेसे निर्यापक भिक्षाग्रहण, निद्रा और मलमूत्रका त्याग नहीं कर सकता । अतः वह आत्माका त्याग करता है क्योंकि भोजन न करने से निद्रा नहीं आती । और शारीरिक मल न त्यागनेसे निर्यापकको कष्ट होता है । यदि निर्यापक भिक्षाके लिए भ्रमण करता है तथा सोता है और शरीरमल त्यागने जाता है तो क्षपकका त्याग करता है ||६७४ ||
गा० टी० - अपना अथवा क्षपकका त्याग करनेपर यतिधर्मका त्याग होता है । अर्थात् यतिका धर्मं वैयावृत्य करना है । क्षपकको छोड़कर जानेपर उसका त्याग होता है । न जानेपर यतिधर्म में आवश्यक प्रधान हैं उनका त्याग होता है । ज्ञानका भी व्युच्छेद होता है क्योंकि निर्यापकके साथ वह भी मर जाता है । और ऐसा होनेसे प्रवचनका त्याग होता है । यहाँ प्रवचन शब्दसे आगम कहा है । विद्वान् तो विरल ही होते हैं । अकेला निर्यापक उपवास आदिसे अतिखिन्न होकर यदि मर जाये तो कौन शास्त्रोंका उपदेश देगा और कौन शास्त्रोंको याद रखेगा । अतः प्रवचनका त्याग होता है || ६७५ ||
गा० - क्षपकको त्यागने पर क्षपकको दुःख होता है क्योंकि उसका कोई प्रतिकार नहीं
१. देवं भणतीति चे-आ० । २. शेदवधारयेद्रं - आ० ।
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