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भगवती आराधना त्यागे सति । 'खवगस्स असमाधि' क्षपकस्य असमाधिमरणं भवति, चित्तसमाधि कुर्वतः समीपे अभावात् । 'अप्पणो वा' निर्यापकस्य वा । 'हवेज्ज' भवेत्, असमाधिः अशनादित्यागजनितदुःखव्याकुलस्य ।।६७६।। उद्दाहो इत्येतत् सूत्रं व्याचष्टे
सेवेज्ज वा अकप्पं कज्जा वा जायणाइ उड्डाहं ।
तण्हाछुधादिभग्गो खवओ सुण्णम्मि णिज्जवहे ॥६७७।। 'सेवेज्ज वा अकप्पं' अयोग्यसेवां कुर्यात्, अस्थितभोजनादिकं पार्श्ववर्तिन्यसति । 'कुज्जा वा' कुर्याद्वा । 'जायणाइ उड्डाहं मिथ्यादृष्टीनां गत्वा याचते क्षुधा वा तृषा वा अभिभूतोऽहं अशनं पानं वा देहीति । सुण्णम्मि णिज्जवर्ग' असति निर्यापके ॥६७७।। दुग्गदि एतद्वयाचष्टे
असमाधिणा व कालं करिज्ज सो सुण्णगम्मि णिज्जवगे ।
गच्छेज्ज तवो खवओ दुग्गदिमसमाधिकरणेण ।।६७८।। 'असमाधिणा वा' असति निर्यापके समीपस्थे समाधिमन्तरेण कालं कुर्यात् । ततस्तेन असमाधिमरणेन । 'खवगो दुर्गाद गच्छेज्ज' क्षपको दुर्गति यायात् अशुभध्यानात् ।।६७८।।
सल्लेहणं सुणित्ता जत्ताचारेण णिज्जवेज्जतं ।
सव्वेहिं वि गंतव्वं जदीहिं इदरत्थ भयणिज्जं ॥६७९।। 'सल्लेहणं' सल्लेखनां । 'सुणित्ता' श्रुत्वा । 'जुत्ताचारेण' युक्ताचारेण सूरिणा 'णिज्जवेज्जतं' प्रवर्त्यमानां । सर्वेरपि गन्तव्यं यतिभिरितरत्र निर्यापके सूरी मन्दचारित्रे भाज्यं । यान्ति न यान्ति वा यतयः ॥६७९।।
सल्लेहणाए मूलं जो वच्चइ तिव्वभत्तिरायेण । भोत्तूण य देवसुहं सो पावइ उचमं ठाणं ॥६८०॥
है। और भोजनादि त्यागनेसे निर्यापकको दुःख है। तथा क्षपकको त्यागने पर क्षपकका असमाधिमरण होता है क्योंकि उसके समीपमें कोई चित्तको समाधान देने वाला नहीं है । अथवा निर्यापक की असमाधि होती है क्योंकि वह भोजन आदिके त्यागसे उत्पन्न दुःखसे व्याकुल होता है ॥६७६।।
गा०-यदि एक निर्यापक आहारादिके लिए गया तो उसके अभावमें क्षपक अयोग्य सेवन करेगा अर्थात् बैंठकर भोजनादि करेगा। अथवा मिथ्यादृष्टियोंके पास जाकर याचना करेगा कि मैं भूख वा प्याससे पीड़ित हूँ। मुझे खानेको वा पीनेको दो ॥६७७||
___ गा०-समीपमें निर्यापक न होने पर क्षपक समाधिके बिना मरण कर सकता है। और उस असमाधिमरणसे अशुभ ध्यानवश दुर्गतिमें जा सकता है ।।६७८॥
गा०-युक्त आचार वाले आचार्यके द्वारा क्षपककी सल्लेखना हो रही है यह सुनकर सब यतियोंको वहाँ जाना चाहिए । किन्तु यदि निर्यापक आचार्य मन्द चारित्र वाला हो तो यति चाहें तो जा सकते हैं, म.चाहें तो न जायें ।।६७९।।
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