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विजयोदया टीका
४३७ करोति । सम्यग्दर्शनादिभावनया मिथ्यात्वादिपरिणामांस्तनूकरोति । एवं वसतिसंस्तरोति एवं वसतिसंस्तरी निरूपितौ ॥६४५॥ निर्यापकान्निरूपयति
पियधम्मा दढधम्मा संविग्गा वज्जभीरुणो धीरा ।।
छंदण्हू पच्चइया पच्चक्खाणम्मि य विदण्हू ॥६४६॥ 'पियधम्मा' प्रियो धर्मो येषां ते भवन्ति प्रियधर्माणः । 'दढधम्मा' धर्मे स्थिराः । 'संविग्गा' संविग्नाः संसारभीरवः । 'वज्जभीरुणो' पापभीरवो। 'पीरा' धृतिमन्तः । 'छंदण्हू' अभिप्रायज्ञाः । 'पच्चइगा' प्रत्ययिताः । पच्चक्खाणम्मिय विदण्ह' प्रत्याख्यानक्रमज्ञाः । धर्मश्चारित्रं तेन प्रियचारित्रा यतयः । ततश्चारित्रे क्षपकमपि वर्तयितुमत्सहन्ते तत्साहाय्यतां च कर्तुं । यद्यपि चारित्रेऽनुरागवन्तः सम्यग्दृष्टितया तथापि चारित्रमोहोदयाददृढचारित्रा भवन्ति इति विशेषणमुपादत्ते दृढचारित्रा इति । अदृढचारित्रा हि न असंयम परिहरेयुः । कस्मादसंयम परिहरन्ति पापभीरवो यस्मात् ? संविग्ना विचित्रव्यसननि धानभूतचतुर्गतिभ्रमणभयव्याकुलाः । धीरा इत्यनेन परोषहसहा इत्याख्यायते । परिषहैः पराजितो न संयम परिपालयतीति मन्यते । क्षपकेण अनुक्तमपि तदिङ्गितेनावगततत्प्रयोजना वैयावृत्त्ये वर्तन्ते । नानभिप्रायज्ञा इति दर्शयितुं छन्दण्हू इत्युक्तं । प्रत्ययितव्या गुरुभिर्नामी असंयम कुर्वन्ति क्षपके वैयावृत्त्योद्यता इति साकारनिराकारप्रत्याख्यानक्रमज्ञाः ।।६४६।।
खना करता है । और सम्यग्दर्शन आदि भावनासे मिथ्यात्व आदि परिणामोंको कृश करता है। इस प्रकार वसति और संस्तरका कथन किया ॥६४५।।
अब निर्यापकोंका कथन करते हैं
गा०-जिन्हें धर्म प्रिय है, जो धर्ममें स्थिर हैं, संसारसे भीरु हैं, पापसे डरते हैं, धैर्यवान् हैं, अभिप्रायको जानते हैं, विश्वासके योग्य हैं, प्रत्याख्यानके क्रमको जानते हैं, ऐसे यति निर्यापक होते हैं ॥६४६||
___टो०-यहाँ धर्मसे चारित्रका अभिप्राय है। अतः निर्यापक यतियोंको चारित्र प्रिय होता है। इससे वे क्षपकको भी चारित्रमें प्रवृत्ति करनेके लिए उत्साहित करते हैं और उसकी सहायता करते हैं । यद्यपि सम्यग्दृष्टि होनेसे यति चारित्रमें अनुराग रखते हैं तथापि चारित्र मोहका उदय होनेसे चारित्रमें दृढ़ नहीं होते। इसलिए 'दृढ़ चारित्र' विशेषण दिया है। जिनका चारित्र दृढ़ नहीं होता वे असंयमका परिहार नहीं करते । पापभीरु होनेसे असंयमका परिहार करते हैं क्योंकि वे विचित्र दुःखोंकी खानरूप चार गतियोंमें भ्रमणके भयसे व्याकुल होते हैं। तथा 'धीर' पदसे परीषहोंका सहने वाले कहा है । जो परोषहोंसे हार जाता है वह संयमका पालन नहीं करता ऐसा माना जाता है। क्षपकके न कहने पर भी उसके संकेत मात्रसे उसका अभिप्राय जानकर वैयावृत्यमें प्रवृत्त होते हैं इसलिए निर्यापक अभिप्रायको न जानने वाले नहीं होते। यह बतलानेके लिए 'छंदण्हु' कहा है । तथा गुरुओंके द्वारा विश्वास योग्य होते हैं कि ये असंयम नहीं करते और क्षेपककी वैयावृत्य में तत्पर रहते हैं। वे साकार और निराकार प्रत्याख्यानके क्रमको जानते हैं। अर्थात् उक्त गुण युक्त होने पर भी जिन्होंने पहले किसी क्षपककी समाधि नहीं देखी है ऐसे यतियों
१. 'एवं संस्तरोति' इति पाठो नास्ति आ० मु० । २. विधान-अ०। ३. नानाभि-अ० मु० ।
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