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भगवतो आराधना
णिस्संधी य अपोल्लो णिरुवहदो समधिवास्सणिज्जतु ।
सुहपडिलेहो मउओ तणसंथारो हवे चरिमो ।।६४३।। 'णिस्संधी य' ग्रन्थिरहितः । 'अपोल्लो' अच्छिद्रः । "णिरुवहदो' निरुपहतः अचूर्णितः । समधिवास्सणिज्जन्तु मृदुस्पर्शो निर्जन्तुकश्च । 'सुहपडिलेहों सुखेन प्रतिलेखनीयः सुखेन शोध्य इति यावत् । 'मउगो' मृदुः। 'तणसंथारो हवे चरिमो' तृणसंस्तरो भवेदन्त्यः ॥६४३॥
जुत्तो पमाणरइओ उभयकालपडिलेहणासुद्धो ।
विधिविहिदो संथारो आरोहव्वो तिगुत्तेण ॥६४४॥ 'जुत्तो' युक्तो योग्यः । 'पमाणरइदो' प्रमाणसमन्वितः । नात्यल्पो नातिमहान् । 'उभयकालपडिलेहणासुद्धी' सूर्योदयास्तमनकालद्वये प्रतिलेखनेन शुद्धः । 'विधिविहिदो संथारो' शास्त्रनिर्दिष्टक्रम कृतसंस्तरः । 'आरोहव्वों आरोढव्यः । केन ? 'तिगुत्तेण' त्रिगुप्तेन कृताशुभमनोवाक्कायनिरोधेन ॥६४४॥
णिसिदित्ता अप्पाणं सव्वगुणसमण्णिदंमि णिज्जवए ।
संथारम्मि णिसण्णो विहरदि सल्लेहणाविधिणा ॥६४५॥ 'णिसिदित्ता' स्थापयित्वा त्यक्त्वा । 'अप्पाणं' आत्मानं । 'सव्वगुणसमण्गिदम्मि' सर्वगुणसमन्विते णिज्जवगे' निर्यापके । 'संथारम्मि' संस्तरे । 'णिसण्णो' निषण्णो । 'विहरदि' चेष्टते। 'सल्लेहणा विहिणा' सल्लेखना द्विप्रकारा बाह्याभ्यन्तरा चेति । द्रव्यसल्लेखना भावसल्लेखना च । आहारं परिहाय शरीरसल्लेखनां
जानेमें सुकर हो, अचल हो-शब्द न करता हो, एकरूप हो, जन्तुरहित हो, छिद्ररहित हो, टूटा-फूटा न हो, चिकना हो । ऐसा फलक संस्तर होता है ।।६४२।।
विशेषार्थ-पं० आशाधरजीने अपनी टीकामें 'अप्पपाणो' के स्थानमें 'अप्पमाणो' पाठ रखकर उसका अर्थ पुरुष प्रमाण किया है अर्थात् फलक क्षपकके शरीरके प्रमाण होना चाहिए ॥६४२॥
गा०-तृणसंस्तर गाँठरहित तृणोंसे बना हो, तृणोंके मध्यमें छिद्र न हों, टूटे तृण न लगे हों, मृदुस्पर्शवाला हो, जन्तुरहित हो, सुखपूर्वक शुद्धि करनेके योग्य हो, और कोमल हो। ऐसा अन्तिम तृणसंस्तर होता है ।।६४३॥
विशेषार्थ-पं० आशाधरजी ने अपनी टीकामें 'समधिवास्स' का अर्थ 'सम्यक् रूपसे अधिवास करनेके योग्य' किया है अर्थात् जिसपर लेटनेसे खाज पैदा न हो ॥६४३।।
. गा० - इस प्रकार संस्तर योग्य हो, प्रमाणयुक्त हो-न बहुत छोटा हो और न बहुत बड़ा हो, दोनों समय अर्थात् सूर्योदय और सूर्यास्तके समय प्रतिलेखना द्वारा शुद्ध किया गया हो, और शास्त्र में निर्दिष्ट क्रमके अनुसार बनाया गया हो। ऐसे संस्तर पर अशभ मन वचन कायका निरोध करके क्षपकको आरोहण करना चाहिए ॥६४४।।
गा०-टो०-सर्वगुणोंसे सम्पन्न निर्यापकाचार्य पर अपनेको समर्पित करके क्षपक संस्तर पर आरोहण करता है और सल्लेखनाकी विधिसे विचरता है। सल्लेखनाके दो प्रकार हैं-बाह्य और अभ्यन्तर । अथवा द्रव्य सल्लेखना और भावसल्लेखना । आहारको त्यागकर शरीरकी सल्ले
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