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विजयोदया टीका
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भण्यते । सर्वथा नित्यं सर्वथा क्षणिकं, एकमेवानेकमेव वा, सदेव असदेव वा, विज्ञानमात्रमेव । शून्यमेवे - त्यादिकं परसमयं पूर्वपक्षीकृत्य प्रत्यक्षानुमानेन आगमेन च विरोधं प्रदर्थं कथंचिन्नित्यं कथंचिदनित्यं कथंचिदेकं कथंचिदनेकं इत्यादिस्वसमयनिरूपणा च विक्षेपणी ।। ६५५ ।।
संवेणी पुण कहा णाणचरिततववीरियइडिगदा | णिवेणी पुण कहा सरीरभोगे भवोघे य ||६५६ ||
'संवेयणी पुण कहा' संवेजनी पुनः कथा । ' णाणचरित्ततववीरियइड्ढिगदा' ज्ञानचारित्रतपोभावना जनितशक्तिसम्पन्निरूपणपरा । 'णिग्वेजणी पुण कथा' निर्वेजनी पुनः कथा सा । 'सरीरभोगे भवोघे य' शरीरे, भोगे, भवसन्ततौ च पराङ्मुखताकारिणी | शरीराण्यशुचीनि रसादिसप्तधातुमयत्वात् शुक्रशोणितबीजत्वात्, अशुच्याहारपरिवद्धितत्वात् अशुचिस्थाननिर्गतत्वात् च । न केवलमशुच्यसारमपि अनित्यकायस्वभावाः प्राणभृतः इति शरीरतत्त्वश्रवणात् । तथा भोगा दुर्लभाः स्त्रीवस्त्रगन्धमाल्यभोजनादयो लब्धा अपि कथंचिन्न तृप्ति जनयन्ति । अलाभे तेषां लब्धानां वा विनाशे शोको महानुदेति । देवमनुजभवावपि दुर्लभी, दुःखवहुली अल्पसुखौ इनि निरूपणात् । तथा ।। ६५६ ॥
विक्खेवणी अणुरदस्स आउगं जदि हवेज्ज पक्खीणं ।
होज्ज असमाधिमरणं अप्पागमियस्स खवगस्स ||६५७ ||
विक्खेवेणी अणुरदस्स' विक्षेपण्यां परसमनिरूपणायां अनुरक्तस्य । 'आउगं' आयुष्कं । 'जदि हवेंज्ज' यदि भवेत् । 'पक्खीणं' प्रक्षीणं । 'होज्ज' भवेत् 'असमाधिमरणं । 'अप्पाागमिगस्स खवगस्स' अल्पश्रुतस्य
जिस कथा में स्वसमय और परसमयकी चर्चा होती है वह विक्षेपणी है । वस्तु सर्वथा नित्य है, या सर्वथा क्षणिक है, अथवा एक ही है या अनेक ही है, अथवा सत् ही है या असत् ही है, अथवा विज्ञानमात्र ही है या शून्य ही है, इत्यादि परसमयको पूर्वपक्ष बनाकर प्रत्यक्ष अनुमान और आगमसे उसमें विरोध दर्शाकर वस्तुको कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य, कथंचित् एक, कथंचित् अनेक इत्यादि स्वसमयका कथन करना विक्षेपणी कथा है ।। ६५५॥
गा० - टी० - ज्ञान चारित्र और तपोभावनासे उत्पन्न शक्तिसम्पदाका निरूपण करनेवाली कथा संवेजनी है । शरीर भोग और भवसन्ततिकी ओरसे विमुख करनेवाली कथा निर्वेजनी हैं । जैसे, शरीर अशुचि है क्योंकि वह रस आदि सात धातुओंसे बना है, रज और वीर्य उसके वीज हैं । अशुचि आहारसे वह बढ़ता है और अशुचि स्थानसे निकलता है । शरीर केवल अपवित्र ही नहीं है वह निस्सार भी है; क्योंकि प्राणियोंका शरीर स्वभावसे अनित्य है ऐसा शरीर के विषय में सुना जाता है । तथा स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला, भोजन आदि दुर्लभ भोग किसी तरह प्राप्त होनेपर भी तृप्ति नहीं देते। उनके प्राप्त न होनेपर अथवा प्राप्त होकर नष्ट होनेपर महान् शोक होता है । तथा देव और मनुष्यभव भी दुर्लभ हैं, दुखसे भरे हैं, सुख अल्प है । इस प्रकारका कथन निर्वेजनी कथा है ||६५६||
गा०-विक्षेपणी कथामें अनुरक्तदशा में यदि क्षपककी आयु समाप्त हो जाये तो अल्प
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१. तवाश्रयणात् आ० म० ।
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