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भगवती आराधना आउव्वेदसमत्ती तिगिछिदे मदिविसारदो वेज्जो ।
रोगादंकाभिहदं जह णिरुजं आदुरं कुणइ ।।६२६॥ 'आउठवेदसमत्ती' नितिसमस्तायुर्वेदः । 'तिगिछिदें' चिकित्सायां । 'मदिविसारदो' वुद्धया निपुणः । 'वेज्जो' वैद्यः । 'रोगातकाभिहदं' महता अल्पेन वा व्याधिना पीडितं । 'आदरं' व्याधितं । 'जह' यथा । 'णिरुजं कुदि' विशुद्धं करोति ॥६२६।।
एवं पवयणसारसुयपारगो सो चरित्तसोधीए ।
पायच्छित्तविदण्हू कुणइ विसुद्धं तयं खवयं ॥६२७।। ‘एवं पवयण सारसुयपारगो' प्रवचने यत्सारभूतं श्रुतं तस्य पारगतः । 'पायच्छित्तविदहू' प्रायश्चित्तक्रमशः । 'चरित्तसोधीए' चारित्रशुद्धया । 'तयं खवयं' तकं क्षपकं । 'विसुद्धं कुणवि' विशुद्धं करोति ॥६२॥ स्थविरे व्यावणितगुणे असत्यन्योऽपि भवति निर्यापक इति शङ्कायां कथयति
एदारिसंमि थेरे असदि गणत्थे तहा उवज्झाए ।
होदि पवत्ती थेरो गणधरवसहो य जदणाए ।।६२८॥ 'एदारिसम्मि' व्यावणितगुणे। 'थेरे' स्थविरे अविद्यमाने । 'गणत्थे' गणस्थे । 'तहा' तथा । 'उवज्झाए' उपाध्याये वाऽसति । 'होदि' भवति । "णिज्जवओ' निर्यापकः । 'पवत्तो' प्रवर्तकः । थेरो' स्थविरश्चिरप्रवजितो मार्गज्ञो । 'गणधरवसहो य' बालाचार्यो वा । 'जदणाए' यत्नेन प्रवर्तमानः । एवमालोचनायां गुणदोपनिरूपणा समाप्ता ॥६२८॥
सो कदसामाचारी सोज्झं कटुं विधिणा गुरुसयासे ।
विहरदि सुविसुद्धप्पा अन्भुज्जदचरणगुणकंखी ॥६२९॥ 'सो कदसामाचारी' स क्षपकः कृतसमाचारः । 'सोज्झं' शुद्धि । 'कटु' कृत्वा “विधिणा' विधिना । ज्ञात हो जाता है कि यह तीव्र क्रोधी या तीव्र मानी है। अथवा उसीसे पूछनेसे कि दोष करते समय आपके परिणाम कैसे थे, ज्ञात हो जाता है ॥६२५।।
गा०–अथवा जैसे समस्त आयुर्वेदका ज्ञाता और चिकित्सामें निपुण बुद्धि वाला वैद्य महती अथवा अल्प व्याधिसे पीड़ित रोगीको नीरोग करता है ।।६२६।।
गा०-उसी प्रकार प्रवचनके सारभूत श्रुतका पारगामी और प्रायश्चित्तके क्रमका ज्ञाता आचार्य चारित्रकी शुद्धिके द्वारा उस क्षपकको विशुद्ध करता है ।।६२७।।
उक्त गुणवाला आचार्य न होने पर क्या अन्य भी निर्यापक हो सकता है ? इसका समाधान करते हैं
गा०--उक्त गुणवाले आचार्यके तथा उपाध्यायके संघमें न होने पर सावधानता पूर्वक प्रवत्ति करने वाला प्रर्वतक अथवा स्थविर अथवा बालाचार्य निर्यापक होता है । जो अल्प शास्त्रज्ञ होते हुए भी सर्व संघकी मर्यादा चर्याको जानता है उसे प्रवर्तक कहते हैं। जिसे दीक्षा लिए बहुत काल बोत गया है तथा जो मार्गको जानता है उसे स्थविर कहते हैं ।।६२८।।
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