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विजयोदया टीका
४३१ 'गुरुसयासे' गुरुसमीपे । 'विहरदि' प्रवर्तते । 'सुविसुद्धप्पा' सुष्ठु विशुद्धात्मा । 'अन्भुज्जदचरणगुणकखी' अभ्युद्यतचारित्रगुणकांक्षासमन्वितः ॥६२९॥
एवं वासारत्ते फासेदण विविघं तवोकम्मं ।
संथारं पडिवज्जदि हेमंते सुहविहारम्मि ।।६३०॥ 'एवं वासारते' वर्षाकाले 'फासेदूण' स्पृष्ट्वा । 'विविधं' नानाप्रकारं । 'तवोकम्म' तपःकर्म। 'संथारं' संस्तरं । 'पडिवज्जदि' प्रतिपद्यते । 'हेमंते' शीतकाले । 'सुहविहारम्मि' सुखविहारे । अनशने समुद्यतस्य महान्परिश्रमो न भवति तत्र काले इति सुखविहारमित्युच्यते ॥६३०॥
सव्वपरियाइयस्स य पडिक्कमित्तु गुरुणो णिओगेण ।
सव्वं समारुहित्ता गुणसंभारं पविहरिज्जा ॥६३१।। 'सव्वपरियाइयगस्सय' सर्वस्य ज्ञानदर्शनचारित्रपर्यायस्य अतिचारान् । 'पडिक्कमित्तु' प्रतिनिवृत्तो भूत्वा । 'गुरुणिओगेण' गुरूपदेशेन । 'गुणसंभारं' गुणानां समूहं । 'सव्वं' कृत्स्नं 'समारुहित्ता' सम्यगारुह्य । 'पविहरिज्ज' प्रवर्तेत । आलोचनागुणदोषाः ॥६३१॥ कीदृशी वसतिर्योग्या का वा नेत्येतद्वयाचष्टे उत्तरेण ग्रन्थेन तथा योग्यां निरूपयति
गंधव्वणट्टजट्टस्सचक्कजंतग्गिकम्मफरुसे य ।
णत्तियरजया पाडहियडोंबणडरायमग्गे य ॥६३२।। 'गंधव्वणट्टजट्टस्सचक्कजंतग्गिकम्मफरसे य' गायकानां, नर्तकानां, गजानामश्वानां च शालायां, तिलमनकुम्भकारशालायां च यन्त्रशालायां रजकपाटहिकडोंबनटगृहाणां समीपे। राजमार्गस्य वा समीपभूतायां वसतौ ॥६३२॥
गा०-वह क्षपक सामाचारी करके विधिपूर्वक प्रायश्चित्त द्वारा अपने दोषोंकी विशुद्धि करता है । और अच्छी तरहसे आत्माको विशुद्ध करके स्वीकृत चारित्रमें गुणोंकी इच्छा करता हुआ गुरुके पासमें साधना करता है ॥६२९॥
गा०-इस प्रकार वर्षाकालमें नाना प्रकारके तप करके सुख विहार वाले हेमन्त ऋतुमें संस्तरका आश्रय लेता है । हेमन्त ऋतुमें अनशन आदि करने पर महान् परिश्रम नहीं होता, सुखपूर्वक हो जाता है इसलिए उसे सुखविहार कहा है ॥६३०॥
___ गा.-समस्त ज्ञान दर्शन और चारित्रके अतिचारोंसे शुद्ध होकर, गुरुके उपदेशसे समस्त गुणोंके समूहको धारण करके क्षपकको समाधि मरणमें लगना चाहिए ॥६३१॥
आगे कौन वसतिका योग्य है और कौन अयोग्य है यह कहते हैं। प्रथम अयोग्यका कथन करते हैं--
___ गा०-गायनशाला, नृत्यशाला, गजशाला, अश्वशाला, कुम्भकारशाला, यन्त्रशाला, शंख हाथी दांत आदिका काम करने वालोंका स्थान, कोलिक, धोबी, बाजा बजाने वाले, डोम, नद और राजमार्गके समीपका स्थान ॥६३२।।
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