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भगवती आराधना . अनृजो वशुद्धयभावान्न व्यवहारिणः प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति सूरयः । भावशुद्धिमन्तरेण पापानपायात् रत्नत्रयस्य निरतिचारत्वाभावात् ॥६१७॥ . ऋज्वी इतरा वा आलोचना कीदृशी यस्यां सत्यां प्रायश्चित्तं दीयते न च दीयते इत्यत्र आचष्टे
आदुरसल्ले मोसे मालागररायकज्ज तिक्खुत्तो।
आलोयणाए वक्काए उज्जुगाए य आहरणे ॥६१८॥ 'आदुरसल्ले' आतुरो व्याधितः स वैद्यन वारत्रयं पृच्छयते । किं भुक्तं ? किमाचरितं ? कीदृशी वा रोगस्य वृत्तिरिति । शल्यमपि शरीरलग्नं त्रिः परीक्ष्यते । शुद्धता व्रणस्य जाता न वेति । 'राजकज्जं तिक्खुत्तो' राज्ञा आज्ञप्तं कार्य किमेवं करिष्यामीति:त्रिः पृच्छयते । 'आलोयणाए' आलोचनायां । 'वक्काए' वक्रायाः । 'उजुगाए' ऋज्व्याश्च । 'आहरणे' दृष्टान्तः । यदि वारत्रयमप्येकरूपेण वक्ति ततो ऋग्वी अन्यथा अन्यदन्यदाचष्टे वक्रेति ग्राह्यं ॥६१८॥
पडिसेवणातिचारे जदि' णो जंपदि जधाकमं सव्वे ।
ण करेंति तदो सुद्धिं आगमववहारिणो तस्स ।।६१९।। 'पडिसेवणातिचारें प्रतिसेवनानिमित्तानतीचारान । तत्र प्रतिसेवा चतुर्विधा द्रव्यक्षेत्रकालभावविकल्पेन । द्रव्यप्रतिसेवा त्रि:प्रकारा सचित्तमचित्तं मिश्रमिति द्रव्यस्य त्रिविधत्वात् । चित्तं ज्ञानं तथा च प्रयोगः-चित्तमात्रं जगतत्त्वं ज्ञानमात्रमिति यावत । ज्ञानस्यात्मनः कथञ्चिदव्यतिरेकात्तात्स्थ्याद्वा चित्तशब्देनाभि
उस प्रकार प्रायश्चित्त देना चाहिए। जो सरल हृदय नहीं होता उसके भावशुद्धि नहीं होती। इसलिए व्यवहार कुशल आचार्य उसे प्रायश्चित्त नहीं देते । भावशुद्धिके विना पाप दूर नहीं होता । इसलिए उसके रत्नत्रय निरतिचार नहीं होते ।।६१७||
सरल या वक्र आलोचना कैसी होती है जिसके होनेपर प्रायश्चित्त दिया जाता है या नहीं दिया जाता, यह कहते हैं
गा०-टी०-वैद्य रोगीसे तीन बार पूछता है-तुमने क्या खाया था, क्या किया था, रोगकी क्या दशा है ? शरीरमें लगे घावकी भी तीन बार परीक्षा की जाती है कि घाव भरा या नहीं? चोरी होनेपर तीन बार पूछा जाता है कि क्या-क्या चोरीमें गया है, कैसे चोरी हुई है ? मालाकारसे भी तीन बार पूछा जाता है कि तेरी मालाका क्या मूल्य है। राजाने जिसे कार्य करनेकी आज्ञा दी है वह तीन बार पूछता है कि क्या इस प्रकार करूं ? इसी प्रकार आलोचनाकी परीक्षा भी तीन बार की जाती है। अपना अपराध पुनः कहो ? ये सरल और वक्र आलोचनाके
सम्बन्धमें पाँच दृष्टान्त हैं। यदि तीनों बार भी एकरूपसे ही कहता है तो सरल आलोचना है। • यदि अन्य अन्यरूपसे कहता है तो वक्र आलोचना है ऐसा समझना चाहिए ।।६१८।।
गा०-टी०-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे प्रतिसेवनाके चार भेद हैं। द्रव्यप्रतिसेवनाके तीन प्रकार हैं क्योंकि सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे द्रव्यके तीन प्रकार हैं। चित्त ज्ञानको कहते हैं। कहा जाता है-जगत् तत्त्व चित्तमात्र है अर्थात् ज्ञानमात्र है। ज्ञान आत्मासे
१. णाउटेदि अ० ।
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