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विजयोदया टीका
४०३ प्राञ्जलीकरणशुद्धः । 'आलोएदि' कथयति । 'सुविहिदो' सुचारित्रः । 'सम्वे दोसे' पूर्वदोषान् । 'पमोत्तूण' त्यक्त्वा । आलोचना ॥५६३।। आलोचनाक्रमं निरूप्य गुणदोसा इत्येतद्वचाख्यानायोत्तरप्रबन्धः
आकपिय अणुमाणिय जं दिटुं बादरं च सुहुमं च ।
छण्णं सद्दाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी ॥५६४॥ 'आकंपिय' अनुकम्पामात्मनि सम्पाद्य आलोचना । 'अणुमाणिय' गुरोरभिप्रायमुपायेन ज्ञात्वालोचना। 'जं दिटुं' यद् दृष्टं दोषजातं परस्तस्यालोचना । 'बादरं च यत्स्थूलमतिचारजातं तस्यालोचना । 'सुहमं च' यत्सूक्ष्ममतिचारजातं तस्यालोचना । 'छण्णं' प्रच्छन्नं अदृष्टलोचना । 'सद्दाउलयं' शब्दा आकुला यस्यां आलोचनायां सा शब्दाकुला। बहजनशब्दः सामान्यविषयोऽपीह गुरुजनबाहल्ये वर्तते । गुरोरालोचनायाः प्रस्तुतत्वाद्बहूनां गुरूणां आलोचना क्रियते सा बहुजनशब्देनोच्यते । 'अन्वत्ता' अव्यक्तस्य क्रियमाणा आलोचना । 'तस्सेवी' तानात्मचरितान्दोषान्यः सेवते स तत्सेवी तस्य आलोचना । इदं सूत्रं । अस्य व्याख्यानायोत्तरप्रवन्धः ॥५६४॥ आकम्पिय इत्येतत्सूत्रपदं व्याचष्टे
भत्तेण व पाणेण व उवकरणेण किरियकम्मकरणेण ।
अणुकंपेऊण गणिं करेइ आलोयणं कोइ ।।५६५।। 'भत्तण व पाणेण व' स्वयं भिक्षालब्धिसमन्वितत्वात्प्रवर्तको भूत्वा आचार्यस्य प्रासुकेन उद्गमादिदोष
गा०-सुविहित अर्थात् सुचारित्र सम्पन्न क्षपक दक्षिण पार्श्वमें पीछीके साथ हाथोंकी अंजलिको मस्तकसे लगाकर मन वचन कायकी शुद्धि पूर्वक प्रथम गुरुकी वन्दना करके सब दोषोंको त्याग आलोचना करता है ।।५६३।।
विशेषार्थ-पं० आशाधरजोने अपनी टीकामें लिखा है कि गुरुकी वन्दना सिद्धभक्ति और योगभक्तिपूर्वक की जाती है ऐसा वृद्धोंका मत है। किन्तु श्रीचन्द्राचार्य सिद्ध भक्ति, चारित्रभक्ति और शान्तिभक्ति पूर्वक कहते हैं ।।५६३॥ - आलोचनाका क्रम कहकर उसके गुण-दोष कहते हैं- ...
गा०-ट्री०-१. आकम्पित-अपने पर गुरुकी कृपा प्राप्त करके आलोचना करना। २. अनुमानित-उपायसे गुरुका अभिप्राय जानकर आलोचना करना । ३. दूसरोंने जो दोष देखा उसकी आलोचना करना । ४. बादर-स्थूल अतिचारकी आलोचना करना । ५. सूक्ष्म अतिचारकी आलोचना करना। ६. छन्न-कोई न देखे इस प्रकार आलोचना करना । ७. शब्दाकुलित-शब्दोंकी भरमार होते समय आलोचना करना । ८. बहुजन शब्द सामान्य वाची होते हुए भी यहाँ गुरुजनोंकी बहुलतामें लिया गया है। गुरुसे आलोचना करनेका प्रकरण होनेसे बहुतसे गुरुओंसे आलोचना करना बहुजन है। ९. अव्यक्तसे आलोचना करना। १०. तत्सेवी-जो अपने समान दोषोंका भागी है उससे आलोचना करना । इसका व्याख्यान आगे करेंगे ।।५६४।।
आकम्पित दोषको कहते हैंगा०–स्वयं भिक्षालब्धिसे युक्त होनेके कारण प्रवर्तक होकर आचार्यको उद्गम आदि
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