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विजयोदया टोका
४०५ मन्यमानः । 'तधिमा' तथा इयं । 'सल्लुद्धरणशोधी' मायाशल्योद्धरणशुद्धिः । सामान्यवचनोऽपि शल्यशब्दोऽत्र मायाशल्ये वृत्तः । तस्य उद्धरणं नाम स्वकृतापराधकथनं । आलोचनाशल्योद्धरणमेव शुद्धिरुच्यते ज्ञानदर्शनचारित्रतपसां नर्मल्यहेतुत्वात् । जीवितार्थिनः हितबुद्धया 'गृहीताक्रीतविषपानं उपमानं तद्वतीयमालोचना । भक्तपानादिदानेन वन्दनया वा क्रीत्वा गुरुं स्वबुद्ध्या क्रियमाणा न शुद्धि सम्पादयति विषपानमिव जीवित क्रयणलब्धा च दुष्टता उपमानोपमेययोः साधारणो धर्मस्तथाप्यपमानमपमेयं तयोश्च साधारणं धर्ममाश्रित्य सर्वत्रोपमानोपमेयता। चन्द्रमुखी कन्या इत्यादौ चन्द्र उपमानं, उपमेयं मुखं, वृत्तता सर्वजनमनोवल्लभता च साधारणो धर्मः ।।५६७।।
उपमानान्तरेणापि उपमेयं आलोचनां प्रथयति
वण्णरसगंधजुत्तं किंपाकफलं जहा दुहविवागं ।
पच्छा णिच्छयकडुयं तधिमा सल्लुद्धरणसोघी ॥५६८।। वण्णरस इत्यादि । "किपाकफलं वष्णरसगंधजुत्तमवि जहा दुहविवागं' । किंपाकास्यस्य तरोः फलं । वर्णादिशून्यस्य तरोः फलस्याभावादवचनसिद्धवर्णादियुक्तवचनमतिशयितवर्णादिपरिग्रहं सूचयति । तेनायमर्थः-नयनप्रियरूपं, मधुरसयुक्तं, घ्राणसुखदं सेवितमिति वाक्यशेषः । 'दुहविपाकं' दुःखविपाकं । 'पच्छा' अनुभवोत्तरकालं । 'णिच्छयकडुगं' निश्चयेन कटुकं । 'तधिमा' तं यथा । 'सल्लुद्धरणसोधी' आलोचनाशुद्धिः विषपानको हित मानता है । वैसा ही यह माया शल्यको निकालकर शुद्धिका अभिलाषी साधु है। यद्यपि यहाँ शल्य शब्द सामान्य शल्यका वाची है फिर भी यहाँ मायाशल्यका वाचक लिया है। उसका उद्धरण अर्थात् अपने किये अपराधको कहना। शल्यका उद्धरण ही शुद्धि कहा जाता है क्योंकि वह ज्ञान दर्शन और चारित्र तपकी निर्मलतामें कारण है । जोनेके अभिलाषीने हितबुद्धिसे ग्रहण किया खरीदे हुए विषका पान उपमान है। उसीके समान यह आलोचना है । भक्त पान आदि देकर या वन्दनाके द्वारा गुरुको खरीदकर अपनी बुद्धिसे की गई आलोचना शुद्धि नहीं करती जैसे विषपान जीवन नहीं देता। खरीदकर प्राप्त करना और दुष्टता उपमान और उपमेयका साधारण धर्म है। उपमान उपमेय और उन दोषोंमें पाये जाने वाले साधारण धर्मको लेकर सर्वत्र उपमान उपमेय व्यवहार होता है। जैसे 'चन्द्रमुखी कन्या' आदिमें चन्द्र उपमान है मुख उपमेय है । और गोलपना तथा सब लोगोंके मनको प्रिय होना दोनोंका साधारण धर्म है ।।५६७||
अन्य उपमानके द्वारा उपमेय आलोचनाको कहते हैं
गा०-दी-किपाक नामक वृक्षका फल वर्णरसगन्धसे युक्त होनेपर भी जैसे परिणाममें दुःख देता है। वृक्षका फल वर्ण आदिसे शून्य नहीं होता अतः उसका रूपादिमान होना सिद्ध है। फिर भी जो उसे वर्णादियुक्त कहा है वह विशिष्टरूप रसगन्ध आदिका सूचक है। अतः यह अर्थ होता है-किपाक वृक्षका फल नेत्रोंको अत्यन्त प्रियरूपवाला होता है। मधुररससे युक्तः होता है और नाकको सुखदायक होता है। परन्तु सेवन करनेपर दुःखकारी होता है उसे खानेसे मृत्यु हो जाती है। अतः सेवन करनेके पश्चात् निश्चयसे कटुक होता है। यह आलोचना शुद्धि
१. गृहीता अहिता त्रीत-अ० मु०। २. जीवितविक्रयण लब्धं पानं दु-आ० मु० । १. स्याभावादवचन-आ।
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