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भगवती आराधना
लोध्रगन्धादिभिः उद्वर्तनं च नाचरन्ति । लिङ्गविकाशनक्रिया तात्स्थ्याल्लिङ्गशब्देनोच्यते । 'तेणिक्कारादिभत्ते' अदत्तादानं रात्रिभोजनं च । अदत्तादाने कृते तत्स्वामिनः प्राणापहार एव कृतो भवति । बहिश्चराः प्राणा धनानि प्राणभृतां राजानो दण्डयन्तीह । रात्रौ च भोजनं अनेकासंयममुलं । रात्रौ भ्रमण षड्जीवनिकायबधो। अयोग्यस्य प्रत्याख्यातस्य च भोजनं । दातपरोक्षासम्भवः । करस्य, भाजनस्योच्छिष्टनिपतनदेशस्य, दायिकागमनमार्गस्य तस्यात्मनश्चावस्थानदेशस्य अपरीक्षा । 'मेहूणपरिग्गहे चेव' मैथुनं परिग्रहश्चैव । 'मोसे' मृषा च ॥४१॥
णाणे दंसणतववीरिये य मणवयणकायजोगेहिं ।
कदकारिदेणुमोदे आदपरपओगकरणे य ॥६१२॥ 'माणे' ज्ञाने । 'दसणतववीरिए' श्रद्धायां तपसि वोर्ये च योऽतिचारः । 'मणवयणकायजोहि' मनो
यक्रियाभिः । मनसा सम्यग्ज्ञानस्यावज्ञा. किमनेन ज्ञानेन, तपश्चारित्रमेव फलदाय्यनष्ठेयमिति । सम्यग्ज्ञानस्य वा मिथ्याज्ञानमिदमिति दूषणं । मनसा वाचा कायेन वा स्वारुचिप्रकाशनं, मुखवैवर्ण्यन नैतदेवमिति शिरःकम्पनेन वा । शङ्काकाङ्क्षादि दर्शनेऽतिचारः । तपस्यसंयमः। वीर्य स्वशक्तिगृहनं । स चातीचारः सर्वस्त्रिप्रकार इति कथयति । 'कदकारिदे अणुमोदे' कृतः, कारितोऽनुमतश्च । 'आदपरपओगकरणे य' आत्मनैव कृतः कारितोऽनुमतश्च, परयोगक्रियया कृतः कारितोऽनुमतो वा ॥६१२।।
वे भिक्षु लोघ्र वगैरह सुगन्धित द्रव्योंका उबटन भी शरीरपर नहीं लगाते हैं। लिंगशब्दसे लिंगको विकसित करनेकी क्रिया ली गई है। वह भी भिक्षु नहीं करते ।
तेणिक्क चोरीको कहते हैं। भिक्षु विना दी हुई वस्तुका ग्रहण और रात्रिभोजन नहीं करते। विना दी हुई वस्तुका ग्रहण अर्थात् चोरी करनेपर उसके स्वामीका प्राण ही हर लिया जाता है क्योंकि धन मनुष्योंका बाहिरी प्राण होता है । इसी लोकमें राजा उसे दण्ड देते हैं। तथा रात्रि में भोजन अनेक असंयमोंका मूल है। रात्रिमें साधु भ्रमण करे तो छहकायके प्राणियोंका घात होता है। तथा रात्रिमें दृष्टिगोचर न होनेसे त्यागी हुई तथा अयोग्य वस्तु भी खाने में आ जाती है। दाताकी परीक्षा भी असम्भव होती है। हाथमें स्थित भोजन, जूठन गिरनेका स्थान, आहार देनेवालेके आने जानेका मार्ग, उसके तथा अपने खड़े होनेके प्रदेशकी परीक्षा भी रातमें नहीं होती। मैथुन, परिग्रह और असत्यके वे त्यागी होते हैं ॥६११॥
गा०-टी०-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, तप और वीर्यके सम्बन्धमें मन वचन कायकी क्रियाके द्वारा अतिचार हुए हैं
मनसे सम्यग्ज्ञानकी अवज्ञा करना, इस ज्ञानसे क्या लाभ है, तप और चारित्र ही फलदायक है । उन्हें ही करना चाहिए । अथवा सम्यग्ज्ञानको यह मिथ्याज्ञान है, ऐसा दूषण लगाना। अथवा मनसे वचनसे कायसे अपनी अरुचि प्रकट करना । अथवा मुखको विरूपतासे या सिर हिलाकर 'यह ऐसा नहीं है' यह प्रकट करना सम्यग्ज्ञानके अतिचार हैं। सम्यग्दर्शनमें शंका कांक्षा आदि अतिचार कहे हैं। तपमें असंयम अतिचार है। वीर्यमें अपनी शक्तिको छिपाना अतीचार है। वह सब अतिचार कृत कारित अनुमोदनाके भेदसे तीन प्रकार है। तथा स्वयं ही करना कराना अनुमोदना करना और परके द्वारा करना, कराना, अनुमोदना करना इस तरह कृत कारित अनुमोदनाके भी दो प्रकार हैं ।।६१२।।
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