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भगवती आराधना
____ 'तो' पश्चात् आलोचनोत्तरकालं । 'दसणचरणाधारएहि' समीचीनदर्शनचारित्रधारणोद्यतैः । 'सुत्तत्थमुव्वंहतेहि' सूत्रार्थ मुद्रहद्भिः । 'पवयणकुसलेहि' सूत्रार्थमुद्वहद्भिरित्यनेनैव गतत्वात्किमनेन 'प्रवचन कुशलैः' इति । अयमभिप्रायः-प्रायश्चित्तग्रन्थवृत्तिः प्रवचनशब्दः तेन प्रायश्चित्त कुशलैरित्यर्थः । अन्यशास्त्रज्ञोऽपि न शोधयति न चेत्प्रायश्चित्तज्ञः इति प्राधान्यकथनार्थ पृथगुपादानं । 'तेहि' तैः । 'से' तस्मै । 'जधारिहं तवो दिण्णो' अपराधानुरूपं तपो दत्तं । तपोग्रहणं प्रायश्चित्तोपलक्षणार्थ तेन प्रायश्चित्तं दत्तं इत्यर्थः ॥५९६।।
रणवमम्मि य जं पुव्वे भणिदं कप्पे तहेव ववहारो । अंगेसु सेसएसु य पइण्णए चावि तं दिण्णं ॥५९७।। तेसिं असदहतो आइरियाणं पुणो वि अण्णाणं ।
जइ पुच्छइ सो आलोयणाए दोसो हु अट्ठमओ ॥५९८।। 'सि' तेषां । 'आयरियाणं' आचार्याणां वचनं । 'असद्दहंतो' अश्रद्दधानः । 'पुणो वि जदि' पुनरपि यदि पृच्छत्यन्यानसौ । 'अट्ठमगो आलोयणादोसो' सोऽष्टमः आलोचनादोषः ।।५९७-९८॥
पगुणो वणो ससल्लं जध पच्छा आदुरं ण तावेदि ।
बहुवेदणाहिं बहुसो तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ॥५९९।। 'पगुणो वणो' प्रगुणं वा व्रणं उपचितं । 'ससल्लं' शल्यसहितं । 'पच्छा' पश्चात् । 'आदुरं' व्याधितं । 'किमु न तावेदि' किमु न तापयति तापयत्येव । 'बहुवेदणाहि' बहीभिर्वेदनाभिः । 'बहुसो' बहुशः । 'तधिमा'
गा०-टो०-आलोचनाके पश्चात् सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रके धारण करने में तत्पर, सूत्रोंके अर्थको वहन करनेवाले और प्रवचन कुशल आचार्योंने उसे अपराधके अनुरूप तप दिया। यहाँ तपका ग्रहण प्रायश्चित्तके उपलक्षणके लिए है अतः आचार्योंने उसे प्रायश्चित्त दिया।
शङ्का-सूत्रके अर्थको वहन करनेसे प्रवचनकुशलका भाव आ जाता है फिर उसे अलग ग्रहण क्यों किया?
समाधान-इसका अभिप्राय यह है कि यहाँ प्रवचन शब्दका अर्थ प्रायश्चित्तग्रन्थ है। अतः उसका अर्थ होता है प्रायश्चित्तशास्त्रमें कुशल । अन्य शास्त्रोंका ज्ञाता होते हुए भी यदि प्रायश्चित्तका ज्ञाता नहीं है तो दोषका शोधन नहीं कर सकता। इसलिए प्रायश्चित्तकी प्रधानता कहनेके लिए 'वचनकुशल' पदका अलगसे ग्रहण किया है ।।५९६॥
गा०-प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्वमें तथा कल्प और व्यवहार नामक अंग बाह्यमें, तथा शेष अंगों और प्रकीर्णकोंमें जो प्रायश्चित्तका कथन है तदनुसार ही आचार्यने उसे प्रायश्चित्त दिया ।।५९७॥
गा०-किन्तु वह साधु उन आचार्योंके वचनोंपर श्रद्धान न करके फिर भी यदि अन्य आचार्योंसे पूछता है तो यह आलोचनाका आठवां दोष है ॥५९८॥
गा०-ऊपरसे अच्छा हुआ किन्तु भीतरमें कील सहित धाव पीछे बढ़कर क्या बहुत कष्ट
१. ज्ञो न ददाति न चेत् आ० मु०। २. अ० ज० प्रति में यह गाथा नहीं है। ३. शः । यथा तथा इमा स-अ० आ० ।
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