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विजयोदया टीका
४१७ 'तधिमा सल्लुद्धरणसोधी' आलोचनाशुद्धिः दोषं न निरस्यति । तद्विलक्षणं वस्तु यथा निर्मलजलं पङ्क वस्त्रस्य न तु लोहितेन लिप्तं वस्त्रं शोधयति तथाभूतमेव लोहितं । एवमतीचाराशुद्धिः अशुद्धरत्नत्रयोद्देशप्रवृत्तेः अशुद्धयालोचनया न निराक्रियते इति साधर्म्यनियोजना ॥६०६॥
पवयणणिण्हवयाणं जह दुक्कडपावयं करेंताणं ।
सिद्धिगमणमइदूरं तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ॥६०७॥ ‘पवयणणिहृवयाणं' जिनप्रणीतवचननिह्नवकारिणां। 'दुक्कडपावगं करेंताणं' दुष्करपापकारिणां । 'जह सिद्धिगमणमइदूरं' यथा सिद्धगमनमतिदुष्करं । तस्सेवी गदं ।।६०७॥ ।
सो दस वि तदो दोसे भयमायामोसमाणलज्जाओ ।
णिज्जहिय संसुद्धो करेदि आलोयणं विधिणा ॥६०८॥ 'सो' क्षपकः । 'तो' ततः आलोचनया दुष्टया शुद्धेरभावात् । 'दोसे णिज्जूहिय' दोषांस्त्यक्त्वा । 'दस वि' दशापि । 'भयमायामोसमाणलज्जाओ' भयं मायां मनोगतां मुषां वचनगतां, मानं लज्जां च त्यक्त्वा । 'संशुद्धो' सम्यक्शुद्धः । 'विधिना आलोयणं करेदि' विधिना आलोचनां करोति ॥६०८॥ कोऽसावालोचनाविधिरित्याशंक्याहः
णदृचलवलियगिहिभासमूगदद्दुरसरं च मोत्तूण ।
आलोचेदि विणीदो सम्म गुरुणो अहिमुहत्थो ॥६०९॥ ‘णट्टचलवलियगिहिभासमूगददुरसरं च' हस्तनतनं, भ्रू क्षेपं, चलनं गात्रस्य, वलितं, गृहिवचनं, मूकवत्संज्ञाकरणं, घर्घरस्वरं च मुक्त्वा । 'आलोचेदि' कथयति । "विणीदो' कृताञ्जलिपुटोऽवनतशिरस्कः । 'अदुदं' अद्रुतं । अविलम्बितं । स्पष्टं । 'गुरुणो महिमुहत्यो' गुरोरभिमुखः ॥६०९॥ उसी तरह यह आलोचना शुद्धि दोषको दूर नहीं करती। उसके विपरीत निर्मल जल वस्त्रमें लगे कीचड़को दूर करता है। किन्तु रुधिरसे लिप्त वस्त्रको रुधिर शुद्ध नहीं कर सकता। इसी प्रकार अशुद्ध रत्नत्रयवाले मुनिसे की गई अशुद्ध आलोचनासे अतीचार सम्बन्धी अशुद्धि दूर नहीं होती। इस प्रकार दृष्टान्त और दार्टान्तमें समानता जानना ।।६०६॥
___ गा०-जैसे जिन भगवान्के वचनोंका लोप करनेवाले और दुष्कर पाप करनेवालोंका मुक्तिगमन अति दुष्कर है उसी प्रकार पार्श्वस्थ मुनिसे दोषोंको कहनेवालोंकी शुद्धि अति दुष्कर है । यह तत्सेवी नामक दसवें दोषका कथन हुआ ॥६०७॥
गा०–सदोष आलोचनासे शुद्धि नहीं होती, इसलिए निर्यापकाचार्यके पादमूलमें उपस्थित क्षपक दसों दोषोंको तथा भय, माया, असत्यवचन, मान और लज्जाको त्यागकर सम्यक्प्रकारसे शुद्ध होकर विधिपूर्वक आलोचना करता है ॥६०८॥
वह आलोचनाकी विधि क्या है, यह कहते हैं
गा०—हाथका नचाना, भौं मटकाना, शरीरको मोड़ना, गृहस्थकी तरह बोलना, गूंगेकी तरह संकेत करना और घर्घर स्वरको त्याग कर, दोनों हाथोंकी अंजली बनाकर, सिर नवाकर गुरुके सामने उनकी बायीं ओर एक हाथ दूर गवासनसे बैठकर, न अति जल्दीमें और न अति रुकरुक कर स्पष्ट आलोचना करता है ।।६०९॥
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