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विजयोदया टीका
४१५ तथा इयं । 'सल्लुद्धरणसोधी' आलोचनाशुद्धिः। मायामृषापरित्यागेन कृत। अतिशोभना सद्वृत्ता दोषा' गुरुदत्तप्रायश्चित्ताश्रद्धानशल्यसमन्वितत्वादुःखावह त्वात् । बहुजण ॥५९९॥
आगमदो वा बालो परियाएण व हवेज्ज जो बालो ।
तस्स सगं दुच्चरियं आलोचेदण वालमदी ॥६००। 'आगमदो वा बालो' आगमेन ज्ञानेन वा बालः । 'परियाएण व हवेज्ज जो बालो' चारित्रवालो वा यो भवेत् । यः स 'तस्स' तस्मै । 'सगं दुच्चरिदं' आत्मीयमतिचारं । 'आलोचेदूण बालमदी' उक्त्वा बालबुद्धिः ॥६००॥
आलोचिदं असेसं सव्वं एदं मएत्ति जाणादि ।
बालस्सालोचेंतो णवमो आलोचणा दोसो ॥६०१।। 'आलोचिदं' कथितं । 'असेसं सव्वं' निरवशेषं सर्व। मनोवाक्कायकृतोऽतिचारः सर्वशब्देन उच्यते । कृतकारितानुमतविकल्पा अशेषा इत्याख्यायन्ते । 'मएत्ति जाणादि' मयेति जानाति । 'बालस्सालोचतो' ज्ञानबालाय चारित्रबालाय वा कथयति । 'णवमो आलोयणादोसो' नवम आलोचनादोषः ॥६०१॥
कूडहिरण्णं जह णिच्छएण दुज्जणकदा जहा मेत्ती ।
पच्छा होदि अपत्थं तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ॥६०२॥ कूडहिरणं जह पच्छा अपत्था णिच्छएण होदिति पदघटना । यथा कूटहिरण्यं धनमिति गृहीतं पश्चादपथ्यं निश्चयतो भवति अभिमतद्रव्यग्रहणे अनुपायत्वात् । एवमपि इयमपि बालस्य क्रियमाणालोचना अनुरूपप्रायश्चित्तप्राप्ती अनुपायत्वात् सदृशी । न ज्ञानबालः परार्थयोग्यप्रायश्चित्तं दातु क्षमः । 'दुज्जणकदा य मेत्ती' नहीं देता? देता ही है। उक्त आलोचना भी उसी घावकी तरह है । यद्यपि यह आलोचना माया और असत्यको त्यागकर की जानेसे अति सुन्दर है, दोष रहित है। तथापि गुरुके द्वारा दिए गये प्रायश्चित्तके प्रति अश्रद्धान रूपी शल्यसे युक्त होनेसे दुःखदायी है। यह बहुजन नामक दोष है ।।५९९॥
गा०-जो मुनि आगम अर्थात् ज्ञानसे बालक है अथवा जो चारित्रसे बालक है अर्थात् जिसे शास्त्रज्ञान भी नहीं है और चारित्र भी जिसका हीन है उसके सन्मुख जो अज्ञानी अपने दोषकी आलोचना करता है ॥६१०॥
गा०-और मैंने अपने मन वचन काय तथा कृत कारित अनुमोदनासे किए सब दोष कह दिये, ऐसा जानता है । इस प्रकार ज्ञान बालक और चारित्र बालक मुनिसे दोषोंका निवेदन करना नौवाँ आलोचना दोष है । इसे अव्यक्त दोष कहते हैं ॥६०१॥
गा०-टी०-जैसे नकली सोनेको धन समझकर ग्रहण करे तो पीछेसे वह निश्चय ही अहितकर होता है क्योंकि उससे यदि कुछ इच्छित वस्तु खरीदना चाहें तो नहीं खरीद सकते। इसी प्रकार बालमुनिके सन्मुख की गई आलोचना भी अनुरूप प्रायश्चित्तकी प्राप्तिका उपाय न होनेसे नकली सोनेके ही समान अहितकारी है। क्योंकि ज्ञानसे वालमुनि परमार्थके योग्य प्रायश्चित्त
१. संहृतदोषापि-मूलारा० । २. दुःखावहा-आ० ।
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