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भगवती आराधना
रहितेन भक्तेन वा पानेन वा वैयावृत्यं कृत्वा, उपकरणेण कमण्डलुपिच्छादिना । 'किदिकम्मकरणेन' कृतिकर्मवन्दनया वा । 'आकंपेदूण' अनुकम्पामुत्पाद्य । 'गणि' आचार्य ! 'कोइ आलोयणं करेइ' कश्चित्स्वापराध कथयति ॥५६५॥ तस्यालोचयतो मनोव्यापारं दर्शयति
आलोइदं असेसं होहिदि काहिदि अणुग्ग'हमेत्ति ।
इय आलोचंतस्स हु पढमो आलोयणादोसो ॥५६६।। 'आलोइवं असेसं होहिवि' निरवशेषं आलोचितं भविष्यति । 'काहिवि' करिष्यति । 'अणुहं इमोति' अनुग्रहं ममेति । भक्तादिदानेन कृतोपकारस्य मम तुष्टो गुरुर्न महत्प्रायश्चित्तं प्रयच्छति । अपि तु स्वल्पमेव । महत्प्रायश्चित्तदानभयाभावात्स्थूलं सूक्ष्म वातिचारं सर्वं कथयामीति । 'इय' एवं । 'आलोचेंतस्स खु' एवं मनसि कृत्वा आलोचयतः । 'पढमो' प्रथमः । 'आलोयणा दोसो' आलोचनादोषः । कोऽसौ ? अविनयो नाम । यत्किचिल्लब्ध्वा गुरवस्तुष्यन्ति लघुप्रायश्चित्तदायिनो भविष्यन्तीति स्वबुद्धया असदोषाध्यारोपणान्मानसोऽविनयः । अन्ये तु वर्णयन्ति आलोचना च दोषश्च आलोचनादोषः । अशभाभिसन्धिपुरःसरा आलोचना इति यावत् ॥५६६॥ दृष्टान्तमुखेन दुष्टतामालोचनाया दर्शयति
केदूण विसं पुरिसो पिएज्ज जह कोइ जीविदत्थीओ। ___ मण्णंतो हिदमहिदं तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ॥५६७।। - 'केदूण विसं पुरिसों' इत्यादिना । 'जह कोइ पुरिसो जीविवत्थी विसं केदूण पिबेज' इति सम्बन्धः । यथा कश्चित्पुरुषो जीवितार्थी विषं कृत्वा पिबति । 'अहिवं' अहितं कृत्वा । विषपानं 'हिवं मण्णंतो' हितमिति दोषोंसे रहित प्रासुक भवतसे अथवा पानसे अथवा कमंडलु पीछी आदि उपकरणसे अथवा कृतिकर्म वन्दनासे वैयावृत्य करके अपने पर आचार्यकी कृपा उत्पन्न करके कोई साधु अपना अपराध कहता है ॥५६५॥
उसके आलोचना करते समय मनकी प्रवृत्ति दिखलाते हैं
गा०-टी०-भोजन आदिके दानके द्वारा उपकार करनेसे मुझपर प्रसन्न होकर गुरु महान् प्रायश्चित्त नहीं देंगे, बल्कि थोड़ा ही देंगे । अतः महान् प्रायश्चित्तका भय न होनेसे मैं स्थूल और सूक्ष्म सब अतिचार कहूँगा। इस प्रकार मनमें विचार कर आलोचना करने वालेके अविनय नामक प्रथम आलोचना दोष होता है। जो कुछ प्राप्त करके गुरु प्रसन्न होंगे और वे लघु प्रायश्चित्त देंगे ऐसा अपनी बुद्धिसे असत् दोषका अध्यारोपण करना मानसिक अविनय है। अन्य टाकाकार कहते हैं-आलोचना और दोष आलोचना दोष है। अशुभ अभिप्रायपूर्वक आलोचना दोष है ॥५६६॥
दृष्टान्त द्वारा आलोचनाकी दुष्टता दिखलाते हैंगा०-टी०-जैसे कोई जीनेका अभिलाषी पुरुष विष खरीद कर पीता है वह अहित करके
१. अणुग्गह ममेत्ति आ० । अणुग्गह मिमोत्ति-मु० मूलारा० । २. चना द्रष्टात्मालोचनादपिआ० मु०।
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