________________
४०२
भगवती आराधना
कोऽभिप्रायो येन प्राङ्खो भवति । प्रारब्धपरानुग्रहणकार्यसिद्धरङ्गं तद्दिगभिमुखता तिथिवारादिवदिति । उदङ्मुखता तु स्वयंप्रभादितीर्थकृतो विदेहस्थान् चेतसि कृत्वा तदभिमुखतया कार्यसिद्धिरिति । चैत्यायतनाभिमुखतापि शुभपरिणामतया कार्यसिद्धरङ्गं । निर्व्याकुलमासीनस्य यत् श्रवणं तदालोचयितुः सम्माननं । यथा कथंचिच्छवणे मयि अनादरो गुरोरिति नोत्साहः परस्य स्यात् । एक एव शृणुयात्सूरिर्लज्जापरो बहूनां मध्ये नात्मदोष प्रकटयितमीहते । चित्तखेदश्चास्य भवति, तथा कथयतः एकस्यैवालोचनां शृणयात दुरवधारत्वायुगपदनेकवचनसंदर्भस्य । तद्दोषनिग्रहं नायं वराकः 'पडिच्छदि' । प्रतीच्छति इत्यनेनैवाव गतत्वाद्विरहम्मि इति वचनं निरर्थकं । यद्यन्येऽपि तत्र स्युन एकेनैव श्रुतं स्यात । न लज्जत्ययमस्य अपराधश्चास्य अनेनावगत एवेति नान्यस्य सकाशे शृणुयात् इति एतत्सूच्यते । 'विरहम्मि' एकान्ते इति आचार्य शिक्षति ॥५६२॥ शिष्यस्य आलोचनाक्रममाचष्टे- .
काऊण य किरियम्म पडिलेहणमंजलीकरणसुद्धो ।
आलोएदि सुविहिदो सब्वे दोसे पमोत्तूण ॥५६३॥ 'काऊण य किदिकम्म' कृतिकर्म वन्दनां पूर्व कृत्वा । 'पडिलेहणमंजलीकरणसुद्धो' प्रतिलेखनासहितः करता है। आचार्य किस अभिप्रायसे पूरबकी ओर मुख करके बैठते हैं ?
समाधान-शुभ तिथि वार आदिकी तरह पूरबकी ओर मुख करना, प्रारम्भ किए गये क्षपक पर अनुग्रह करनेके कार्यकी सिद्धिका अंग है इसलिए आचार्य पूर्वाभिमुख बैठते हैं। विदेह क्षेत्र उत्तर दिशामें हैं। अतः विदेह क्षेत्रमें स्थित स्वयंप्रभ आदि तीर्थ करोंको चित्तमें स्थापित करके उनके अभिमुख होनेसे कार्यकी सिद्धि होती है इस भावनासे उत्तर दिशाकी ओर मुख करते हैं। जिनालयके अभिमुख होना भी शुभ परिणामरूप होनेसे कार्यसिद्धिका अंग है । व्याकुलता रहित हो बैठकर सुनना आलोचना करने वालेका सन्मान है । जिस किसी प्रकारसे सुननेपर क्षपक समझेगा कि गुरुका मेरे प्रति आदरभाव नहीं है, इससे उसे उत्साह नहीं होगा। आचार्यको अकेले ही सुनना चाहिए क्योंकि लज्जालु क्षपक बहुत जनोंके बीचमें अपना दोष प्रकट करना नहीं पसन्द करता। सबके सामने कहते हुए उसके चित्तको खेद भी होता है। आचार्यको एक समयमें एककी ही आलोचना सुनना चाहिए क्योंकि एक साथ अनेक क्षपकोंके वचनोंको अवधारण करना कठिन होता है । लोग कहेंगे कि गुरु इसके दोषोंका निग्रह करना नहीं चाहता।
___शंका-उक्त कथनसे ही यह ज्ञात हो जाता है कि गुरु एकाकी आलोचना सुनते हैं। फिर गाथामें 'विरहम्मि' वचन निरर्थक है ?
समाधान-विरहम्मि' या 'एकान्तमें' पदसे यह सूचित किया है यदि अन्य भी वहाँ हों तो वह एकके द्वारा ही सुना गया नहीं होगा। सुनने वाले कहेंगे कि यह लज्जित नहीं होता। इसने इसका अपराध जान ही लिया। अतः अन्यके पास होते हुए आचार्यको आलोचना नहीं सुनना चाहिए ॥५६२॥
क्षपककी आलोचनाका क्रम कहते हैं
-
१. व गत-आ० मु०।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org