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विजयोदय टीका
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मयः प्रभृति निस्सारं वस्तु वाह्ये तु सुवर्णशकलेन प्रच्छादितं यथा तथा स्वल्पानपराधान्कथयति । पापभीरुताप्रकर्षादयं मुनिरित्थं संयतः कथं महत्यतिचारे प्रवर्तत इति प्रत्ययजननाय अंतः साररहितता तृतीयेनोच्यते । सुमं ।।५८५ ॥
दि मूलगुणे उत्तरगुणे य कस्सह विराहणा होज्ज । पढमे विदि दिए उत्थर पंचमे च वदे || ५८६||
यदि मूलगुणे उत्तरगुणे च कस्यचिद्विद्यते मूलगुणे, चारित्रे, तपसि वा अनशनादावुत्तरगुणे अतिचारो भवेत् । अहिंसादिके व्रते ॥ ५८६ ॥
को तस्स दिज्जइ तवो केण उवाएण वा हवदि सुद्धों ।
इय पच्छण्णं पुच्छदि पायच्छित्तं करिस्सत्ति || ५८७ ||
'को तस्स दिज्जइ तवो' किं तस्मै दीयते तपः ? 'केण उवाएण होदि वा सुद्धो केनोपायेन वा शुद्धो भवतीति । 'पच्छण्णं' प्रच्छन्नं । 'पुच्छदि' पृच्छति । आत्मानमुद्दिश्य मयायमपराधः कृतस्तस्य किं प्रायश्चित्तं इति न पृच्छति । किमर्थमेवं प्रच्छन्नं पृच्छति । ज्ञात्वा प्रायश्चित्तं करिस्संति करिष्यामि ॥ ५८७ ||
इय पच्छण्णं पुच्छिय साधू जो कुणइ अप्पणो सुद्धिं ।
तो सो जिणेहिं वुत्तो छट्टो आलोयणा दोसो || ५८८।।
'इ' एवं 'पच्छण्णं' प्रच्छन्नं । 'पुच्छिय' पृष्ट्वा । 'जो साहू' यः साधुः । 'अप्पणो सोधि कुणदि' आत्मनः शुद्धि करोति । 'सो छट्ठो आलोयणा दोसो वृत्तो जिर्णोहि' । षष्ठोऽसावालोचनादोषस्तस्य भवतीति जिनरुक्तः ||५८८ ॥
अल्प शुद्धि होती है यह प्रथम दृष्टान्तका भाव है । गुरुतर पापको ढाँकने मात्रको प्रकट करनेके लिए दूसरा दृष्टान्त है । भारी लोहा वगैरह वस्तु निस्सार होती है, बाहर में उसे सोनेके पत्रसे जैसे ढा देते हैं उसी प्रकार वह सूक्ष्म अपराधोंको कहता है । ऐसा वह यह विश्वास उत्पन्न करनेके लिए करता है कि गुरु समझें कि यह मुनि पापसे इतना भयभीत है कि सूक्ष्म पापको भी नहीं छिपाता तब बड़ा पाप कैसे कर सकता है ? तीसरे दृष्टान्तके द्वारा इसे अन्तःसार रहित कहा है ||५८५||
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गा० - यदि किसीके मूलगुण चारित्र अथवा उत्तर गुण अनशन आदि तपमें या अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग व्रतमें अतिचार लग जाये || ५८६||
सत्य,
गा० तो उसे कौन सा तप दिया जाता है ? वह किस उपायसे शुद्ध होता है ? ऐसा प्रच्छन्न रूपसे पूछता है । अर्थात् अपनेको लक्ष करके कि मुझसे यह अपराध हुआ है उसका क्या प्रायश्चित्त है ऐसा नहीं पूछता । किन्तु यह जानकर प्रायश्चित्त करूँगा इस भावसे पूछता है ।।५८७ ।।
गा० – इस प्रकार प्रच्छन्नरूपसे पूछकर जो साधु अपनी शुद्धि करता है उसको छठा आलोचना दोष होता है ऐसा जिनदेवने कहा है ||५८८||
१. अंतस्मार - अ० ।
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