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विजयोदया टोका 'जह बालों जपंतो' यथा बालो जल्पन । 'कज्जमकज्जं व कार्यमकायं वा । 'भणदि' वदति । 'उज्जगं' ऋजुना क्रमेण । 'तह' तथा । 'आलोचदव्वं' वक्तव्योऽपराधः । 'मायामोसं च मोत्तूण' मनोगतां वक्रता, वचनगतां, मृषां च मुक्त्वा ॥५४९।। उपसंहरति प्रस्तुतम्
दसणणाणचरित्ते कादूणालोचणं सुपरिसुद्धं ।
णिस्सल्लो कदसुद्धी कमेण सल्लेहणं कुणसु ॥५५०॥ 'दसणणाणचरित्ते' दर्शनज्ञानचरित्रविषयां । 'आलोयणं कादूण' अपराधमभिधाय । 'सुपरिसुद्ध' 'णिसल्लो' मायाशल्यरहितः । 'कयसुद्धो' कृतगुरुनिरूपितप्रायश्चित्तः। 'कमेण सल्लेहणं कुणसु' क्रमेण सल्लेखनां कुरु ॥५५०॥
तो सो एवं भणिओ अब्भुज्जदमरणणिच्छिदमदीओ।
सव्वंगजादहासो पीदीए पुलइदसरीरो ॥५५१॥ एवं शिक्षितोऽसौ क्षपकः 'तो' ततः । 'सो' आराधकः । ‘एवं भणिदो' एवं शिक्षितः सूरिणा । 'अब्भुज्जदमरणणिच्छिदमदीगों' अभ्युद्यते मरणे निश्चितबुद्धिः । 'सव्वंगजावहासो' सर्वांगजातहर्षः। 'पीदीए पुलगिदसरीरो' प्रीत्या पुलकितशरीरः ॥५५१।।
पाचीणोदीचिमुहो चेदियहुत्तो व कुणदि एगते ।
आलोयणपत्तीयं काउस्सग्गं अणाबाधे ॥५५२॥ 'पाचीणोदीचिमुहो' प्राङ्मुखः उदङ्मुखः । 'चेदियहुत्तोव' चैत्याभिमुखो वा भूत्वा । 'कुणदि काउस्सग्गं' करोति कायोत्सर्ग 1 कोदृग्भूतं ? 'आलोयणपत्तीगं' आलोचनाप्रत्ययं आलोचनानिमित्तं । कायोत्सर्ग स्थित्वा दोषा यतः स्मर्यन्ते कथयितुं तस्मात्कायोत्सर्ग आलोचनाहेतुः । क्व तं करोति ? । 'एगते' एकान्ते जनरहित
गा०-जैसे बालक बोलते हुए कार्य हो या अकार्य हो, सरलभावसे ही कहता है कुछ छिपाता नहीं है। वैसे ही साधुको भी मनोगत कुटिलता और वचनगत झूठको त्यागकर अपना अपराध कहना चाहिए ॥५४९।।
प्रस्तुत चर्याका उपसंहार करते हैं
गा०-अतः दर्शन ज्ञान और चारित्रसम्बन्धी अपने अपराधोंको कहकर, मायाशल्यसे रहित होकर, गुरुके द्वारा कहा गया प्रायश्चित्त करके क्रमसे सल्लेखना करो ।।५५०॥
गा०-इस प्रकार गुरुके द्वारा शिक्षित किया गया वह क्षपक समाधिमरण करनेका निश्चय करता है। उसके सव अंगोंमें हर्षकी लहर दौड़ती है और प्रीतिसे शरीर रोमांचित हो जाता है ।।५५१॥
गा०-टी०-वह पूरब, उत्तर या जिनबिम्बकी ओर मुख करके जनरहित एकान्त प्रदेशमें जहाँ किसी प्रकारकी बाधाकी सम्भावना नहीं है ऐसे जनरहित एकान्तमें स्थानमें आलोचनाके निमित्त कायोत्सर्ग करता है। यतः कायोत्सर्गसे खड़े होनेपर गुरुसे कहनेके लिए दोषोंका स्मरण
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