Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 443
________________ ३७६ भगवती आराधना ‘णिव्ववगो' इत्येतत्सूत्रपदव्याख्यानायोत्तरप्रबन्धःसंथारभत्तपाणे 'यस्य येनाभिसंबन्धो दूरस्थस्यापि तस्य सः' इति कृत्वा संथारभत्तपाणे अमणुण्णे वा चिरं व कीरते । पडिचरगपमादेण य सेहाणमसंवुडगिराहिं ।।४९८॥ संथारभत्तपाणे अमणुण्णे वा चिरं व कोरन्ते कुविदो हवेज्ज खवगो मेरं वा भेत्तुमिच्छेज्न । इति क्रियाभिः पदसंबन्धोऽत्र कार्यः । संस्तरे भक्तपाने वा। 'अमणुण्णे' अमनोज्ञे । 'कीरंतो' क्रियमाणे । 'कुविदो' कुपितो भवेत्क्षपकः । मेरं वा मर्यादा वा। भेत्तुमिच्छेत् । “चिरं व कोरते' चिराद्वा संस्तरकरणे भक्तपानानयने वा । 'पडिचरगपमादेण वा' निर्यापकानां वैयावृत्यकरणे यः प्रमादस्तेन वा कुपितो भवेत् । मर्यादां वा आत्मीयां भेत्तुं इच्छेत् । 'सेहाणमसंवुडगिराहि' अगृहीतार्थानां असंवृताभिः परुषाभिःप्रतिकूलाभिर्वा कुपितो भवेत् ॥४९८॥ सीदुण्हछुहातण्हाकिलामिदो तिव्ववेदणाए वा । कुविदो हवेज्ज खवओ मेरं वा भेत्तुमिच्छेज्ज ।।४९९।। 'सीदुण्हछुहातण्हा किलामिदो' शीतेनोष्णेन क्षुधा तृषया पीडितः कुपितो भवेत् । 'तिम्ववेयणाए वा' तीव्रवेदनया वा कुपितो मर्यादोल्लङ्घनेच्छुभवेत् ।।४९९॥ णिव्यवएण तदो से चित्तं खवयस्स णिव्ववेदव्वं । अक्खोभेण खमाए जुत्तेण पणट्ठमाणेण ॥५००॥ __ "णिव्ववएण' सन्तोषमुत्पादयता सूरिणा । 'तदो' ततः । 'से खवयस्स' तस्य कुपितस्य मर्यादां भेत्तमिच्छतो वा । 'चित्तं णिवदव्वं' चित्तं प्रशान्ति नेयं । 'अक्खोभेण' चलनरहितेन व्यवस्थावता । 'खमाए जुत्तेण' क्षमया युक्तेन । 'पणट्ठमाणेण' प्रनष्टमानेन । न हि रोषी मानी वा सूरिः परचित्तकलङ्क प्रशमयितुं ईहते ततो निःकषायेण भाव्यमिति भावः ॥५०॥ गाथाके 'णिव्ववगो' पदका व्याख्यान करते हैं गा०–संस्तर और भोजनपान क्षपकको मनके अनुकूल न होने पर, अथवा उसमें देरी करने पर अथवा निर्यापकोंके वैयावृत्य करने में प्रमाद करने पर अथवा सल्लेखना विधिसे अनजान नये साधुओंके कठोर और प्रतिकूल वचनोंसे क्षपक कुपित हो सकता है अथवा अपनी मर्यादाका उल्लंघन कर सकता है ।।४९८॥ गा०-अथवा शीत, उष्ण, भूख, प्याससे पीड़ित होनेसे अथवा तीव्र वेदनासे क्षपक कुपित हो सकता है और मर्यादाको तोड़नेकी इच्छा करता है ||४९९|| गा०—तब विचलित न होनेवाले, क्षमाशील और मानरहित आचार्यको सन्तोष वचन कहते हुए उस कुपित अथवा मर्यादाको तोड़नेके इच्छुक क्षपकके चित्तको शान्त करना चाहिये ।।५००। टी०-क्रोधी अथवा घमण्डी आचार्य दूसरेकी चित्तकी अशान्तिको शान्त करना नहीं पसन्द करता। इसलिए आचार्यको कषायसे रहित होना चाहिए, यह इस गाथाका भाव है ।।५००॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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