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भगवती आराधना
- 'हंतप' हत्वा । 'कसाए' कषायान् । 'इंदियाणि' इंद्रियाणि च हत्वा । 'सव्वं च गारवं हंता' सर्वच मारवं हल्या ऋद्धिरससावभेदात्त्रिविकल्पं । 'तो' पश्चात । 'मलिदरागदोसो' मदितरागद्वेषः । 'करेहि कुरु । "बातोयबासुद्धि' आलोचनाख्यां शुद्धि । रागद्वेषौ असत्यवचनस्य हेतु इति परित्याज्याविति कथितौ। रागान्न पश्यति नरो दोषान् । देषाद् गुणान्न गृह्णीते । तस्माद्रागद्वेषौ व्युदस्य कार्याणि कार्याणि ॥५२६॥ नितिचार मदीयं रत्नत्रयं ततः किं गुरोनिवेदयामीति न मन्तव्य मित्याचष्टे
छत्तीसगुणसमण्णागदेण वि अवस्समेव कायव्वा ।
परसक्खिया विसोधी सुठुवि ववहारकुसलेण ॥५२७॥ 'छत्तीसगुनसमचागदेण वि' षट्त्रिंशद्गुणसमन्वितेनापि । 'अवस्समेव होइ कायव्वा' अवश्यमेव भवति कर्तव्या । का ? "क्सिोहों विशुद्धिः मुक्त्युपायातिचाराणामपाकृतिः ॥५२७॥
आयारवमादीया अदुगुणा दसविधो य ठिदिकप्पो ।
वारस तव छावासय छत्तीसगुणा मुणेयव्वा ।।५२८॥ 'सुबि क्वहारकुसलेण' सुष्ठु अपि प्रायश्चित्तकुशलेनापि । अष्टी ज्ञानाचाराः दर्शनाचाराश्चाष्टौ, तपो द्वादशविचं, पंच समितयः, तिस्रो गुप्तयश्च ट्त्रिंशद्गुणाः ॥५२८॥
मा.-कषाय और इन्द्रियोंको नष्ट करके तथा ऋद्धि, रस, और सातके भेदसे सम्पूर्ण माखको नष्ट करके, पश्चात् राग और द्वेषका मर्दन करके आलोचनाकी शुद्धि करो। राग और देष झठ बोलनेमें कारण होते हैं. इसलिए उन्हें छोडने योग्य कहा है। रागवश मनुष्य दोषोंको नहीं देखता, बौर द्वषवश गुणोंको ग्रहण नहीं करता। इसलिए रागद्वोषको दूर करके कार्य करना चाहिए ॥२६॥
__मेरे रत्नत्रय निरतिचार हैं अतः गुरुसे क्या निवेदन करूं ? ऐसा मानना योग्य नहीं, ऐसा कहते हैं
__ या.-छत्तीस गुणोंके धारण और व्यवहारमें कुशल आचार्यको भी अवश्य अन्य मुनिकी साक्षीसे बपने रत्नत्रयकी विशुद्धि-अतिचारोंका शोधन करना होता है। आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, वारह प्रकारका तप, पांच समिति, तीन गुप्ति ये छत्तीस गुण हैं ॥५२७॥
मा०—बाचारवत्त्व आदि आठ गुण, दस प्रकारका स्थितिकल्प, बारह तप, छह आवश्यक, ये छत्तीस गुण जानना चाहिए ॥५२८।।
विशेषार्थ-दोनों प्रतियोंमें यह गाथा इससे पूर्वकी गाथाकी विजयोदया टोकाके मध्यमें दी है। किन्तु विजयोदया टीकामें जो छत्तीस गुण गिनायें है वे इस गाथासे भिन्न हैं । दोनों प्रतियोंमें यद्यपि इसपर क्रमांक नं० ५२२ है किन्तु इससे आगेकी गाथापर भी यही नम्बर है। इससे प्रतीत होता है कि इस गाथाको मूलमें नहीं गिना गया है । पं० आशाधरजीने अपनी टीकामें छत्तीस गुण संस्कृत टीकामें विजयोदयाके अनुसार बतलाकर प्राकृतटीकाके अनुसार अट्ठाईस मूलगुण और बाचारवत्त्व आदि आठ इस तरह छत्तीस बतलाए हैं। 'यदि वा' लिखकर दस आलोचना गुण, दस प्रायश्चित्त गुण, दस स्थितिकल्प, छह जीतगुण इस तरह छत्तीस गुण बतलाकर लिखा है कि यह माथा प्रक्षिप्त ही प्रतीत होती है ॥५२८॥
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