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विजयोदया टीका
३७५ दोष'प्रख्यापनपरेण त्यक्तोऽसौ तत एव गणस्तं त्यजति ॥४९४।। संघस्त्यक्तो भवतीत्येतद् व्याचष्टे
तह चेव पवयणं सव्वमेव विप्परिणयं भवे तस्स ।
तो से दिसावहारं करेज्ज णिज्जूहणं चावि ॥४९५।। 'तह चेव पवयणं सम्वमेव' तथैव प्रवचनं संघः सर्व एव प्रोच्यते रत्नत्रयं यस्मिन्निति शब्दव्युत्पत्ती संघवाची भवति प्रवचनशब्दः । 'विप्परिणदं' विरुद्धतया परिणतं प्रवृत्तं । 'हवे तस्स' भवेत्तस्य । 'तो' ततः । 'से' तस्य । 'दिसापहरणं करेज्ज' कुर्यात् आचार्या पहरणं कुर्यात् संघः "णिज्जूहणं वापि करेज्ज' इति पदसंबन्धः । परित्यागं वा कुर्यात् ।।४९५॥ मिथ्यात्वाराधनाप्रतिपादनार्था गाथा
जदि धरिसणमेरिसयं करेदि सिस्सस्स चेव आयरिओ।
घिद्धि अपुट्ठधम्मो समणोत्ति भणेज्ज मिच्छजणो ॥४९६।। 'जइ धरिसणमेरिसयं' यदि दूषणं एवंभूतं । 'करेदि' करोति । 'सिस्सस्स चेव' शिष्यस्यैव । कः आचार्यः। "धिद्धि अपुठ्ठधम्मो समणोत्ति भणिज्ज' धिग्धिग् अपुष्टधर्मान् श्रमणान् । इति भणेज्ज मिच्छजणे' वदेन्मिथ्यादृष्टिर्जनः ॥४९६॥ प्रस्तुतापरिश्रावितोपसंहारगाथा प्रसिद्धार्था
इच्चेवमादिदोसा ण होति गुरुणो रहस्सधारिस्स ।
पुढेव अपुढे वा अपरिस्साइस्स धीरस्स ।।४९७॥ 'इच्चेवमादि दोसा इति' । अप्परिस्सवं तु गदं ॥४९७॥
समाधान-यतः दोषोंको प्रकट करनेवाले आचार्यने गणका त्याग किया अतः गण भी उसे छोड़ देता है ।।४९४॥
संघ कैसे त्यागा, यह कहते हैं
गा०-जिसमें रत्नत्रय 'प्रोच्यते' कहा जाता है वह प्रवचन है इस व्युत्पत्तिके अनुसार प्रवचन शब्दका अर्थ यहाँ संघ है। सभी संघ आचार्यके विरुद्ध हो सकता है और उसके आचार्य पदको छीन सकता है अथवा उसका त्याग कर सकता है ॥४९५॥
दोष प्रकट करनेसे मिथ्यात्वकी आराधना कैसे होती है, यह कहते हैं
गा०–यदि आचार्य अपने शिष्यको ही इस प्रकार दोष प्रकट करके दूषित करते हैं तो इन अपुष्ट धर्मवाले श्रमणोंको धिक्कार है ऐसा मिथ्यादृष्टि लोग कहेंगे ॥४९६।।
प्रस्तुत अपरिश्रावि गुणके कथनका उपसंहार करते हैं
गा०--जो आचार्य पूछनेपर अथवा बिना पूछे शिष्यके द्वारा प्रकट किये दोषोंको दूसरोंसे नहीं कहता वह रहस्यको गुप्त रखनेवाला आचार्य अपरिस्रावी होता है और उसे ऊपर कहे दोष जरा भी नहीं छूते । ४९७।
अपरिस्रावी गुणका कथन पूर्ण हुआ। १. द्वेषप्रत्याख्यान मु० । दोषप्रत्याख्यान-आ। २. आचार्यत्रये हरणं-आ० ।
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