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विजयोदया टीका
३८५ पडिचरए आपुच्छिय नेहिं णिसिटै पडिच्छदे खवयं ।
तेसिमणापुच्छाए असमाधी होज्ज तिण्हंपि ॥२०॥ आपुच्छा । 'पडिचरए' प्रतिचारकान्यतीन् । 'आपुच्छिय' आपृच्छ्य रत्नत्रयाराधने अस्मानयं सहायाकामयन् प्राघूर्णको यतिः साधुसमाधियावृत्त्यकरणं च तीर्थकरनामकर्मणो मूलमिति भवद्भिरिदमवगतमेव, ततो वदत किमस्माभिरयमनुग्राह्यो न वेति, परार्थवन्तः परार्थबद्धपरिकरा हि प्रायेण लौकिका अपि किमुत यतयः । सकलमासन्नभव्यलोकं संसारपङ्कादुरुत्तरादगाधादुत्तारयितुमुद्यताः ।
'अप्पहियं कायव्वं जइ सक्कइ परहियं च कायस्वमिति' वचनाच्च ।
एतदनुग्रहोद्योगः किं कार्य इति प्रष्टव्यं इति कथयति । 'तेहि परिचारकैः । 'णिसिट्ठ' निसृष्टं अभ्युपगतं । 'पडिच्छदे' प्रतिगृह्णाति । 'खवगं' क्षपकं । 'तेसिमणापुच्छाए' परिचारकाणामपरिप्रश्ने तु । 'असमाही होज्ज तिण्हंपि' सूरेः क्षपकस्य संघस्य च असमाधिः संक्लेशो भवेत् । अस्माभिरयमपरिगृहीत इति. विनये वैयावृत्ये वा अनुद्योगादिना मम' न किञ्चित् कुर्वन्ति इति क्षपकस्य संक्लेशो भवति । गुरोरपिसंक्लेशो भवति, मयास्योपकारे प्रारब्धे सहायभावमिमे नोपयान्ति इति । परिचारकाणां च संवलेशो बहुजनसाध्यं कार्यमस्मान्गुरु नुमोदयति । न बलाबलमस्माकं परीक्षते इति ॥५२०।। पडिच्छणा इत्येतत्सूत्रपदं व्याचष्टे
एगो संथारगदो जजइ सरोरं जिणोवदेसेण ।
एगो सल्लिहदि मुणी उग्गेहिं तवोविहाणेहिं ।।५२१ ।। 'एगो संथारगदो एकः संस्तरमारूढः । 'जजइ सरीरं' यजते शरीरं । 'जिणोवदेसेण' जिनानामुपदे
'गा०-टी०-आचार्य परिचर्या करनेवाले यतियोंसे पूछता है-यह क्षपक रत्नत्रयकी साधनामें हमारी सहायता चाहता है। साधु समाधि और वैयावृत्य करना तीर्थंकर नामकर्मके बन्धके कारण हैं यह आप जानते ही हैं। अतः कहिये, हमलोग इसपर अनुग्रह करें या न करें ? प्रायः लौकिकजन भी परोपकारी और परोपकारके लिए सदा तत्पर रहनेवाले होते हैं। तब यतिजनोंका तो कहना ही क्या है ? वे तो समस्त निकट भव्यजीवोंको गहरे संसार पंकसे निकालने में तत्पर रहते हैं। आगममें भी कहा है-'आत्माका हित करना चाहिए। यदि शक्य हो तो परहित भी करना चाहिए।' अतः क्या इसके कल्याणका उद्योग करना चाहिए या नहीं । इस प्रकार आचार्यके पूछनेपर यदि वे स्वीकार करते हैं तो आचार्य क्षपकको स्वीकार करते हैं। परिचारक यतियोंसे न पूछनेपर आचार्य, क्षपक और संघ तीनोंको ही संक्लेश होता है । हम लोगोंने इस क्षपकको स्वीकार नहीं किया ऐसा मानकर यतिगण यदि उसकी विनय या वैयावृत्य न करें तो क्षपकको संक्लेश होता है कि ये मेरा कुछ भी नहीं करते। गुरुको भी संक्लेश होता है कि मैंने इसका उपकार करना प्रारम्भ किया किन्तु वे इसमें सहायता नहीं करते । परिचारक यतियोंको भी संक्लेश होता है कि यह कार्य बहुत जनोंके करनेका है किन्तु हमारा गुरु यह नहीं मानता और न हमारे बलाबलकी परीक्षा करता है ॥५२०॥
आगे 'पडिच्छणा' पदको कहते हैंगा०-एक मुनि तो संस्तरपर चढ़कर जिनेन्द्रके उपदेशसे शरीरको आराधनामें लगाता १. मम भक्ति विकु-आ० । मम न भक्ति कु-मु०।४९
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