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भगवती आराधना
ननु समानतायाः प्रस्तुतत्वात सामण्णं इत्यनेन तत् परित्यज्य कथमन्यदुपन्यस्तं 'तं संजममिति' । अस्या'यमभिप्राय: श्रमणशब्दस्य द्रव्येप्रवृत्तिनिमित्तं यच्छ्रामण्यं किं च तत्संयमः । तथाहि सावधक्रियापरो नायं श्रमण इति लोको वदति । ततो युक्तमेव भावशल्यमात्मन्यवस्थितमिव दोषमावहतीति दृष्टान्तमुखेन कथयति-||४६५॥
जह णाम दव्वसल्ले अणुद्धदे वेदणुद्दिदो होदि ।
तह भिक्खू विं ससल्लो तिव्वदुहट्टो भयोव्विग्गो ॥४६६।। 'जह णाम' यथा नाम स्फुटं । 'दवसल्ले' शरकण्टकादौ 'अणुद्ध दे' अनुद्धृते अनिराकृते । 'वेदणुद्दिदो होदि' वेदनातॊ भवति । 'तह' तथा। "भिक्खु वि' भिक्षुरपि । 'ससल्लो' भावशल्यवान् । “तिव्वदुहिदो होदि' तीव्रदुःखितो भवति । 'भयोविग्गो' भयेन चलो भवति । एवमनुद्धृतशल्यो गमिष्यामि कां गतिमिति भयमस्य जायते । एवमथं दृष्टान्तेनाविरोधयति ॥४६६॥
कंटकसल्लेण जहा वेघाणी चम्मखीलणाली य ।।
रप्फइयजालगत्तागदो य पादो पडदि पच्छा ॥४६७।। 'कंटकसल्लेण जहा' कण्टकाख्येन शल्येन करणभूतेन यथा । 'वैधाणी चम्मखोलनाली य' व्यधनचर्मकीलनालिकाश्च भवन्ति । 'रप्फइयजालगत्तागदो य' कुथितवल्मीकच्छिद्राणि प्राप्तः स पादः 'पडदि' पतति पश्चाद्यथा ॥४६७॥
एवं तु भावसल्लं लज्जागारवभएहि पडिबद्धं । __ अप्पं पि अणुद्धरियं वदसीलगुणे वि णासेइ ॥४६८।।
लिया है । मायाशल्य सहित मरणसे अज्ञानी संयमको नष्ट करता है।
शङ्का यहाँ तो 'सामण्ण' शब्दसे समानता ली गई है । उसे छोड़कर 'संयम' क्यों कहा ?
समाधान-इसका अभिप्राय यह है कि द्रव्यमें प्रवृत्ति न करने में निमित्त जो श्रामण्य है वही संयम है। लोग कहते ही हैं कि यह पापकार्यों में प्रवृत्ति करता है अतः श्रमण नहीं है । अतः आत्मामें स्थित भावशल्य दोषकारी है यह कहना उचित ही है ।।४६५।।
इसे दृष्टान्त द्वारा कहते हैं
गा-जैसे शरीरमें लगे बाण, काँटा आदि द्रव्यशल्यको न निकालनेपर मनुष्य कष्टसे पीड़ित होता है। उसी प्रकार भावशल्यसे युक्त भिक्षु भी तीव्र दुखित होता है और भयसे विचल होता है कि शल्यको दूर न करनेपर मैं किस गतिमें जाऊँगा। इस प्रकार दृष्टान्तसे अविरोध दिखलाया है ॥४६६।।
___ गा०-जैसे परमें काँटा घुसनेपर पहले पैरमें छिद्र होता है फिर उसमें माँसका अंकुर उग आता है और वह नाडीतक पहुंचता है। पीछे उस पैरमें साँपकी बाँबी जैसे दुर्गन्ध युक्त छिद्र हो जाते हैं ॥४६७।।
१. प्रायः तदिति संजमं श्रामण्यमेवेति निरूपितं ज्ञातव्यमिति ततो युक्त-आ० । २. मिह दो-आ० ।
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