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विजयोदया टोका ‘एवं तु' एवमेव । 'भावसल्लं' परिणामशल्यं । 'लज्जागारवभहिं पडिबद्धं' स्वापराधनिगृहनं लज्जातो भवति । भयेन अपराध कथिते कुप्यन्ति गुरवस्त्यजन्ति वा मां महद्वा प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्तीति । भयात् । तपस्व्ययं सुसंयत इति महती प्रसिद्धिः सा विनश्यतीति गौरवेण च प्रतिबद्धमायाशल्यं । 'अप्पं पि' अल्पमपि । शल्यं 'अणुद्धरियं' अनुद्धृतं । 'ववसीलगुणे' व्रतानि शीलानि गुणांश्च विनाशयति ॥४६८॥
तो भट्टबोधिलाभो अणंतकालं भवण्णए भीमे ।
जम्मणमरणावत्ते जोणिसहस्साउले भमदि ।।४६९।। 'तो' पश्चात् । 'भट्टबोधिलाभो' विनष्टदीक्षाभिमुखबुद्धिलाभः । 'अणंतकालं भमई' अनन्तकालं भ्रमति । क्व ? 'भवण्णवे' भवार्णवे । 'भीमे' भयंकरे । 'जम्ममरणावते' जन्ममरणावर्ते । 'जोणिसहस्साउले' चतुरशीतियोनिसहस्राकुले ॥४६९॥
तत्थ य कालमणंतं घोरमहावेदणासु जोणीसु ।
पच्चंतो पच्चंतो दुक्खसहस्साइ पप्पेदि ।।४७०। 'तत्थ य' तत्र च भवार्णवे । 'अणंतकालं दुक्खसहस्साई पप्पेदि इति पदघटना। अनन्तकालं दुःखसहस्राणि अनुभवति । 'घोरमहावेदणासु जोणीसु पच्चंतो' घोरमहावेदनासु योनिषु पच्यमानः ।।४७०॥
तं न खमं खुपमादा मुहुत्तमवि अत्थि, ससल्लेण ।
आयरियपादमूले उद्धरिदव्वं हवदि सल्लं ।।४७१।। 'त' तस्मात् । 'मुहुत्तमवि अत्यिदु ससल्लेण न समो खु' मुहूर्तमात्रमपि आसितुं शल्यसहितेन रत्नत्रयेण सह न शक्तः प्रमादवशाद्यतिः संसारभीरुः । 'आयरियपादमूले' उक्तगुणस्याचार्यस्य पादमूले । 'उद्धरिदव्वं हवदि सल्लं' शल्यमुद्धर्तव्यं भवति ॥४७१।।।
गा०-टो०- इसी प्रकार लज्जा भय और गारवसे प्रतिबद्ध थोड़ा-सा भी भावशल्य यदि दूर न किया जाये तो व्रत शील और गुणोंको नष्ट करता है । लज्जावश साधु अपने अपराधको छिपाता है । या अपगध प्रकट करनेपर गुरुजन क्रुद्ध होंगे, मुझे त्याग देंगे अथवा बड़ा प्रायश्चित्त देंगे इस भयसे दोषको छिपाता है। अथवा मेरी जो महती प्रसिद्धि है कि यह तपस्वी उत्तम संयमी है वह नष्ट हो जायेगी इस भयसे दोषको छिपाता है। यह मायाशल्य है। इसे यदि दूर नहीं किया गया तो क्षपकके व्रत शील गुण नष्ट हो जाते हैं ।।४६८।। ....
गा०-पीछे दीक्षा धारण करके जो बुद्धिलाभ किया था वह नष्ट हो जाता है और चौरासी हजार योनियोंसे भरे, और जन्ममरणरूपी भँवरोंसे युक्त भयंकर भवसमुद्रमें अनन्तकालतक भ्रमण करता है ।।४६९||
गा०-और उस भवसमुद्र में भयंकर महावेदनावाली योनियों में भ्रमण करता हुआ अनन्तकालतक हजारों दुःख भोगता है ।।४७०॥ - गा०-इसलिए संसारसे भीत यतिको प्रमादवश एक मुहर्तमात्रके लिए भी शल्यसहित रत्नत्रयके साथ रहना उचित नहीं है। उक्त गुणवाले आचार्यके पादमूलमें उसे अपने शल्यको निकाल देना चाहिए ।।४७१।।
. . १. -तोति सुतपास्त्वयं सु-आ० ।
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