________________
विजयोदया टीका
३६९
'जिब्भाए वि लिहंतो' जिह्वया स्वादयन्नपि 'न भहगो नैव भद्रकः । 'जत्थ सारणा णस्थि' यस्मिगरी दोषनिवारणा नास्ति । 'पाएण वि ताडितो' पादेन ताडयन्नपि 'स भगो' स सुरिभद्रकः । 'सारणा जत्थ अत्थि' सारणा यत्र गरौ विद्यते ।।४८३।। सारणकस्य सूरेभंद्रताप्रकटनाय गाथा
सुलहा लोए आदट्ठचिंतगा परहिदम्मि मुक्कधुरा । - आदटुं व परटुं चिंतंता दुल्लहा लोए ।।४८४।। 'सुलभा लोए आदचितगा' सुलभाः प्रचुराः। 'लोए' लोके । 'आवचितगा' स्वकार्ये तत्पराः । पहिदम्मि मुक्कधुरा' परहितकरणे अलसाः । 'आदळं व' आत्मप्रयोजनमिव । 'परळं चितंता' परप्रयोजनचिन्तासमुद्यताः लोके दुर्लभाः ॥४८४॥
आदट्ठमेव चिंतेदुमुद्विदा जे परट्ठमवि लोगे ।
कडुय फरुसेहिं साहेति ते हु अदिदुल्लहा लोए ।।४८५॥ 'आदट्ठमेव चितेदुमुट्ठिदा' आत्मीयमेव प्रयोजनं चिन्तयितुमुत्थिताः । 'जे' ये 'परट्ठमवि' परप्रयोजनमपि कडुगफरसेहि' कटुकैः परुषः प्रवचनैः 'सार्धति' साधयन्ति लोके । 'अतिदुल्लहा' अतीव दुर्लभाः ।।४८५।।
सूरियदि नावपीडयेत् नासौ क्षपको मायाशल्यान्निवर्तते । निर्मायत्वे निरतिचाररत्नत्रये च गुणे न प्रवर्तते इति आचार्यसंपाद्यमुपकारं प्रकटोकरोति--
खवयस्स जइ ण दोसे उग्गालेइ सुहमे व इदरे वा ।
ण णियत्तइ सो तत्तो खवओ ण गुणे य परिणमइ ।।४८६।। 'खवगस्स ण सुहमें व इदरे वा दोसे जइ ण उग्गालेइ' क्षपकस्य सूक्ष्मान् स्थूलान्वा दोषान्यदि नोद्गारयति । 'सो खवगो तत्तो ण णियत्तई' स क्षपकस्तेभ्यः सूक्ष्मेभ्यः स्थूलेभ्यो वा दोषेभ्यो न निवर्तते । 'नव गुणे
जो गुरु शिष्यके दोषोंका निवारण नहीं करता, वह जिह्वासे मधुर वोलनेपर भी भद्र नहीं है । और जो गुरु दोषोंका निवारण करता हुआ पैरसे मारता भी है वह भद्र है ।।४८३।।
दोषोंका निवारण करनेवाले आचार्यको भद्रता बतलाते हैं
गा०--अपने काममें तत्पर किन्तु दूसरोंका हित करने में आलसी मनुष्य लोकमें बहुत हैं । किन्तु अपने कार्यकी तरह दूसरोंके कार्यकी चिन्ता करनेवाले मनुष्य लोकमें दुर्लभ हैं ।। १८॥
गा०—जो अपने ही कार्यकी चिन्तामें तत्पर होते हुए दूसरोंके कार्यको भी कठोर और कटुकवचनोंसे साधते है वे पुरुष लोकमें अत्यन्त दुर्लभ है ।।४८५।।
गा०- आचार्य यदि क्षपकको पीड़ित न करे तो वह मायाशल्यसे न निकले । और मायाशल्यसे निकले विना निरतिचार रत्नत्रय गुणमें प्रवृत्त न हो ।।४८६।।
इस प्रकार आचार्यके द्वारा किये जानेवाले उपकारको प्रकट करते हैं
यदि आचार्य क्षपकके सूक्ष्म अथवा स्थूल दोषोंको न उगलवाये तो वह क्षपक उन सूक्ष्म अथवा स्थूल दोषोंसे निवृत्त न हो और न गुणमें प्रवृत्त हो। और दोषोंको दूर किये विना तथा
४७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org