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રૂપદ
भगवती आराधनां
व्यवहारवानसी परालोचितापराधस्य कथं प्रायश्चित्तं ददातीत्याशङ्कायां प्रायश्चित्तदानक्रमनिरूपणांय
गाथाद्वयम्
दव्वं खेत्तं कालं भाव करणपरिणाममुच्छाहं ।
संघदणं परियायं आगमपुरिसं च विष्णाय ||४५२||
'दव्वं खेत्तं कालं भावं करणपरिणाममुच्छाहं' द्रव्यमित्यादीनां विज्ञायेत्यनेन संबन्धः । तत्र द्रव्यं त्रिविधं सचित्तमचित्तं मिश्रमिति । पृथिवी, आपस्तेजो वायुः, प्रत्येककायाः, त्रसाश्चेति सचित्तद्रव्यमित्युच्यते । तृणफलकादिकं जीवैरनुन्मिश्रं अचित्तं । संसवतं उपकरणं मिश्रं । एवं त्रिविधा द्रव्यप्रतिसेवना । वर्षासु क्रोशार्द्धगमनमिष्टं अर्धयोजनं वा । ततोऽधिकक्षेत्र गमनं क्षेत्रप्रतिसेवना । अथवा 'प्रतिषिद्धक्षेत्रगमनं, विरुद्धराज्य
विशेषार्थ - पं० आशाधरजीने अपनी मूलाराधना टीकामें इनका अर्थ इस प्रकार किया है— ग्यारह अंगों में कहे गये प्रायश्चित्तको आगम कहते हैं । चौदह पूर्वोके कहेको श्रुत कहते हैं । अन्य स्थानमें स्थित अन्य आचार्यके द्वारा अन्य स्थानमें स्थित अन्य आचार्यके द्वारा आलोचित अपने गुरुके दोषको ज्येष्ठ शिष्यके हाथ भेजना आज्ञा है । कोई एकाकी मुनि पैरोंमें चलनेकी शक्ति न होनेसे दोष लगनेपर वहीं रहते हुए पूर्वनिश्चित प्रायश्चित्तको करता है यह धारणा है । बहत्तर पुरुषोंके स्वरूपको लेकर वर्तमान आचार्योंने जो शास्त्रमें कहा है वह जीत है । श्वेताम्बरीय आगमोंमें भी व्यवहारके ये ही पाँच भेद किये हैं । आगमव्यवहारी छह हैं - केवलज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दसपूर्वी और नौपूर्वी । शेष पूर्वधारी और ग्यारह अंगके धारी श्रुतसे व्यवहार करते हैं । आगमव्यवहारी आगमसे ही व्यवहार करता है अन्य से नहीं करता । यह भी चर्चा आती है कि केवलीका व्युच्छेद हो जानेपर चौदह पूर्ववरोंका भी विच्छेद हो गया अतः प्रायश्चित्तदायक न रहनेसे प्रायश्चित्तका विच्छेद हो गया । किन्तु इसका निराकरण किया है । जो व्यवहार एक बार प्रवृत्त हुआ, दुबारा और तिबारा प्रवृत्त हुआ उसे महाजन ने स्वीकार किया । वही पाँचवाँ जीतकल्प व्यवहार है । जीत अर्थात् अवश्य ही कल्पआचार जीतकल्प है । द्रव्य क्षेत्र काल भाव, संहनन आदिकी हानिको लक्षमें रखकर दिया गया प्रायश्चित्त जीत है ॥४५१ ॥
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वह व्यवहारवान् आचार्य दूसरेके आलोचित दोषका प्रायश्चित्त कैसे देता है ? ऐसी आशंका किये जाने पर दो गाथासे प्रायश्चित्त देनेके क्रमका निरूपण करते है
गा० - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, करण, परिणाम, उत्साह, शरीरबल, प्रवज्याकाल, आगम और पुरुषको जानकर प्रायश्चित्त देते हैं ||४५२ ||
टी० -- द्रव्यके तीन भेद है- सचित्त, अचित्त और मिश्र । पृथिवी, जल, आग, वायु, प्रत्येक काय, अनन्तकाय और त्रस इन्हें सचित्त द्रव्य कहते हैं । जीवोंसे रहित तृण, फलक आदि अचित्त द्रव्य हैं । जीवोंसे सम्बद्ध उपकरण मिश्र हैं । इस प्रकार द्रव्य प्रतिसेवनाके तीन भेद हैं । वर्षामें आधा कोस अथवा आधा योजन जाना सम्मत है । उससे अधिक क्षेत्रमें जाना क्षेत्र प्रति
१. प्रतिद्वेष-आ० ।
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