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भगवती आराधना
च मान्ये कुले जातो विशालकीतिः गुणवानपि प्रहीण विभवो नीचं कर्म, पुरो धावनं, प्रेषणकरणं, तदुच्छिष्टभोजनं वा करोति शरीरपोषणाय ।
नान्तर्गतोऽथ न बहिनं च तस्य मध्ये सारोऽस्ति येन मनसा परिगम्यमाणः। तस्मिन्नसारजनकांक्षितकामसारे कोऽन्यः करिष्यति मनः प्रतिबुद्धसारः॥ वायुप्रकोपजनितः कफपित्तजेश्च रोगः सदा दुरितः प्रविमथ्यमानः । देहोऽयमेवमतिदुःखानिमित्तभूतो नाशं प्रयाति बहुधेति कुरुष्व धर्म ॥ संघातजं प्रशिथिलास्थितरुप्रगाढं स्नायुप्रबद्धमशुभं प्रगतं शिराभिः । लिप्तं च मांसरुधिरोदककर्दमेन रोगाहतं स्पृशति को हि शरीरगेहं ॥ [ ] इत्येवमादिका शरीरनिर्वेजनी । गीदत्थपादमूले होति गुणा एवमादिया बहुगा ।
ण य होइ संकिलेसो ण चावि उप्पज्जदि विवत्ती ॥४४९।। 'गीदत्थपादमूले' गृहीतार्थस्य बहुश्रुतस्य पादमूले। 'होंति बहुंगा गुणा' 'गीदत्थो पुण खवगस्स' इत्येवमादिसूत्रपञ्चकनिर्दिष्टाः । 'ण य होइ संकिलेसो' नैव भवति संक्लेशः ‘ण वापि उप्पज्जइ विवत्ती' न चोत्पद्यते विपद्रत्नत्रयस्य । तस्मादाधारवानाचार्यः उपाश्रयणीयः इत्युपसंहारः इति आधारवं ।।४४९।।
व्यवहारवत्त्वनिरूपणायोत्तरगाथा
लिए यह खेत है। जरारूपी डाकिनीके लिए श्मसान है। मान्यकुलमें जन्म लेकर विशाल यश अर्जन करके गुणी मनुष्य भी सम्पत्ति नष्ट हो जानेपर शरीर-पोषणके लिए नीचकर्म करता है, आगे-आगे दौड़ता है, मालिकका सन्देश ले जाता है उसका जूठा भोजन करता है। कहा है___ उस शरीरके अन्दर, बाहर और मध्यमें कोई सार नहीं हैं जिससे मन उसे स्वीकार करे।
रा पसन्द किये जानेवाला काम ही जिसमें सार है उस शरीरके सारको जाननेवाला कौन व्यक्ति अपना मन लगायेगा। यह शरीर वायुके प्रकोपसे उत्पन्न हुए और कफ तथा पित्तके प्रकोपसे और पापकर्मसे उत्पन्न हुए रोगोंसे सदा मथा जाता है। इस तरह यह अति दुःख का निमित्त होता और नाशको प्राप्त होता है इसलिए धर्मका आचरण करो।
यह शरीररूपी घर रज और वीर्यके मेलसे बना है। इसकी अस्थियाँ ढीली ढाली हैं। स्नायुओंसे बँधा है, अशुभ है, सिराओंसे वेष्ठित है, मांस और रुधिररूपी कोचड़ तथा जलसे लीपा गया है । रोगोंसे घिरा है इसे कौन छूना पसन्द करेगा।
इत्यादि कथा शरीरसे वैराग्य उत्पन्न करती है ।।४४८॥
गीतार्थ अर्थात् बहुश्रुत आचार्यके •पादमूलमें रहनेक 'गीदत्थो पुण खयगो' इत्यादि पाँच गाथासूत्रोंमें कहे गये बहुत गुण-लाभ होते हैं। उस क्षपकके परिणामों में संक्लेश नहीं होता और न रत्नत्रयको लेकर ही कोई विपत्ति आती है अर्थात् उसके रत्नत्रयका विनाश नहीं होता। अतः आधारवान् आचार्यका आश्रय लेना चाहिए। इस प्रकार आधारवत्त्व गुणका कथन हुआ ।।४४९।।
आगे व्यवहारवत्त्वगुणका निरूपण करते हैं
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