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विजयोदय टीका
पंचविहं ववहारं जो जाणइ तच्चदो सवित्थारं ।
बहुसो यदिकयपट्ट्वणो ववहारवं होइ ||४५० ॥
'पंचविहं ववहारं ' पञ्चप्रकारं प्रायश्चित्तं । 'जो जाणदि तच्चदो सवित्थारं' यो जानाति तत्त्वतः सविस्तरं । 'बहुसो य दिट्ठकदपट्ठवणो' बहुशश्च दृष्टकृतप्रस्थापनः । आचार्याणां प्रायश्चित्तदानं दृष्टं, स्वयं चान्येषां दत्तप्रायश्चित्तः । 'ववहारवं होदि' व्यवहारवान् भवति । पूर्वार्द्धन प्रायश्चित्तज्ञानता दर्शिता, कर्मदर्शनं कर्माभ्यासश्च प्रख्यापितः । अशास्त्रज्ञो यत्किचिद्ददात्यात्मनोऽभिलषितं न तेन परः शुद्धयति, शास्त्रज्ञोऽप्यदृष्ट'कर्माकर्मसु विषादमेति । ततो ज्ञानं, कर्मदर्शनं, कर्माभ्यास इति त्रयो गुणाः यस्य स व्यवहारवानित्युच्यते ॥ ४५०॥
कः पञ्चविधो व्यवहारः को वा विस्तर इत्याशङ्कायां तदुभयं निरूपयति
आगमसुद आणाधारणा य जीवो य हुंति ववहारा । देसि सवित्थारा परूवणा सुत्तणिदिट्ठा ॥४५१ ।।
'आगमसुद आणाधारणा य जीवो य हुँति ववहारा आगमः श्रुतं, आज्ञा, धारणा, जीव इति व्यव - हाराः पञ्च । 'एदेसि ' एतेषां आगमादीनां । परूवणा कीदृशी ? 'सवित्थारा' विस्तारसहिता । 'सुत्तणिद्दिट्ठा' सूत्रेषु चिरंतनेषु निर्दिष्टा । प्रायश्चित्तस्य सर्वजनानामग्रतोऽकथनीयत्वाच्छास्त्रान्तरे च निर्दिष्टत्वादिह नोच्यते ॥ ४५१ ॥ उक्तं च-
३५५
सव्वेण वि जिणवयणं सोदव्वं सढिदेण पुरिसेण ।
छेवसुदस्स हु अत्थो ण होवि सभ्वंण सोदच्वो ॥ इति ॥ [ ]
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गा०—जो पाँच प्रकारके व्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्तको तत्त्वरूपसे विस्तारके साथ जानता है तथा जिनने अनेक आचार्योंका प्रायश्चित्त देना देखा है और स्वयं भी दूसरोंको प्रायश्चित्त दिया है वह आचार्य व्यवहारवान् होता है । गाथाके पूर्वार्द्धसे आचार्यका प्रायश्चित्तका ज्ञाता होना दर्शाया है तथा प्रायश्चित्तकर्मका दर्शन और प्रायश्चित्तकर्मका अभ्यास होना कहा है । जो प्रायश्चित्त शास्त्रका ज्ञाता नहीं होता वह अपनी इच्छानुसार कुछ भी प्रायश्चित्त देता है किन्तु उससे दूसरेके दोषकी विशुद्धि नहीं होती । प्रायश्चित्तशास्त्रका ज्ञाता होते हुए भी यदि उसने अन्य आचार्योंको प्रायश्चित्त देते न देखा हो तो प्रायश्चित्त देते समय खेदखिन्न होता है ! इसलिए प्रायश्चित्तशास्त्रका ज्ञान, प्रायश्चित्तकर्मका देखना तथा प्रायश्चित्त देनेका अभ्यास ये तीन गुण जिसमें होते हैं उस आचार्यको व्यवहारवान् कहते हैं ||४५०||
पाँच प्रकारका व्यवहार कौन-सा है ? और उसका विस्तार क्या है? ऐसी आशंका होनेपर दोनोंको कहते हैं—
गा० - आगम, श्रुत, आज्ञा, धारण और जीव ये पाँच प्रकारका व्यवहार है । इन आगम आदिका विस्तारसे कथन प्राचीन सूत्रोंमें कहा है । प्रायश्चित्त सब जनोंके आगे नहीं कहा जाता, तथा अन्य शास्त्रोंमें उसका कथन है इसलिए यहाँ नहीं कहा । कहा है- 'समस्त श्रद्धालु पुरुषोंको जिनागम सुनना चाहिए । किन्तु छेदशास्त्रका अर्थ सबको नहीं सुनाना चाहिए' || ४५१ ||
१. अदृष्ट कर्मसु - आ० ।
२. सुट्ठिदेण-आ० ।
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