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भगवती आराधना
एवमुदयमुपयाति कषायाग्निः स चेत्थमपकारं करोत्येवं प्रशान्ति नेतव्य इत्येतद्गाथात्रयोदाहरणे
नोच्यते
पडिचोदणासहणवायखुभिदपडिवयणईघणाइद्धो ।
चंडो हु कसायग्गी सहसा संपज्जलेज्जाहि ॥ २६७॥
'पडिचोयणा' प्रतिचोदनायाः असहनमेत्र वातः तेन क्षुभितः प्रतिवचनेन्धनैरिद्धः क्रूरः कषायाग्निः सहसा प्रज्वलति ॥ २६७॥
जलिदो हु कसायग्गी चरित्तसारं डहेज्ज कसिणं पि । सम्मत्तं पि विराधिय अनंतसंसारियं कुजजा || २६८ ||
'जलिदो हि कसायग्गी' ज्वलितश्च कषायाग्निः । 'चरितसारं' चारित्राख्यं सारं दहत्येव । सम्यक्त्वं विनाश्यानन्त संसारपरिभ्रमणे रतं कुर्यादेव ॥ २६८ ॥
तहा हु कसायग्गी पावं उप्पज्जमाणयं चैव ।
इच्छामिच्छादुक्कडवंदणसलिलेण विज्झाहि ॥ २६९ ॥
'तम्हा खु' तस्मात्खलु कषायाग्निः पापमुत्पद्यमानमेव प्रशमयेत् । केन "इच्छामि भगवतः शिक्षां, मिथ्या भवतु मम दुष्कृतं, नमस्तुभ्यं" इत्येवंभूतेन सलिलेन ॥२२९॥
तह चेव णोकसाया सल्लिहियव्वा परेणुवसमेण ।
साओ गारवाणि य तह लेस्साओं य असुहाओ || २७० ||
इस प्रकार कषायरूपी अग्निका उदय होता है और वह इस प्रकार अपकार करती है, तथा इस प्रकारसे उसे शान्त करना चाहिए, यह तीन गाथाओंसे कहते हैं-
टो० - शिष्य की अयोग्य प्रवृत्तिको रोकनेके लिए गुरुके द्वारा शिक्षा दिये जानेपर शिष्यने जो प्रतिकूल वचन कहे वह गुरुको सहन नहीं हुए । वही हुई वायु । उस वायुसे गुरुके मन में आग भड़क उठी। उसके पश्चात् गुरुने शिष्यको पुनः समझाया तो शिष्यने पुनः प्रतिकूल वचन कहे । उसने गुरुकी कोपाग्निमें ईंधनका काम किया तो आग भड़क उठी । अथवा गुरुने शिष्यको शिक्षा दी । शिष्य उससे क्रुद्ध हुआ । शिष्यकी क्रोधरूप वायुसे क्षुब्ध होकर गुरुने पुनः उसे शिक्षा दी । उस शिक्षाने शिष्यकी क्रोधाग्निको भड़काने में ईंधनका काम किया। ऐसे भयानक कषायाग्नि सहसा भड़कती है ॥२६७॥
गा०—– जलती हुई कषायरूप आग समस्त चारित्र नामक सारको जला देती है । सम्यक्त्वको भी नष्ट करके अनन्त संसारके परिभ्रमण में लगा देती है || २६८ ॥
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टी० – इसलिए पापरूप कषायाग्निको उत्पन्न होते ही बुझा देना चाहिए उसको बुझानेका जल है --मैं भगवान् जिनेन्द्रदेवकी शिक्षाकी इच्छा करता हूँ । मेरा खोटा कर्म मिथ्या हो, मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २६९ ॥
१. 'सम्मत्तम्मि विराधिद' - अ० ।
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