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भगवती आराधना व्याचष्टे-जम्हा इति वाक्यशेषाध्याहारेण सूत्रपदानि सम्बन्धनीयानि । यस्मान्निगृहीतानि कषायेन्द्रियाणि तद्दोषोपदेशं कुर्वता तस्मात् 'साखिल्लदा य कदा' सहायता कृता ।।३२८॥
अदिसयदाणं दत्तं णिव्विदिगिच्छा दरिसिदा होइ ।
पवयणपभावणा वि य णिव्यूढं संघकज्जं च ॥३२९।। 'अदिसयदाणं वत्तं' अतिशयदानं दत्त भवति रत्नत्रयदानात् । 'णिविदिगिछा य दरिसिया होइ' सम्यग्दर्शनस्य गुणो निर्विचिकित्सा नाम सा प्रकटिता भवति । द्रव्यविचिकित्सा निरस्ता शरीरमलानां निराकरणात् जुगुत्सां विना । 'पवयणपभावणा वि य' प्रवचनमागमस्तदुक्तार्थानुष्ठानात् प्रवचनप्रभावना कृता भवति । 'णिन्यूढं संघकज्जं च' संघेन कर्तव्यं कायं च निश्चयेन संपादितं भवति । एतेन ‘कज्जपुण्णाणि' इत्येतद्वयाख्यातम् ॥३२९।। वैयावृत्त्यस्य फलमाहात्म्यं दर्शयति
गुणपरिणामादीहिं य विज्जावच्चुज्जदो समज्जेदि ।
तित्थयरणामकम्मं तिलोयसंखोभयं पुण्णं ।।३३०।। 'गुणपरिणामादीहिं य' । अत्रैवं पदसम्बन्धः 'वेज्जावच्चुज्जदो' वैयावृत्ये उद्यतः । 'गुणपरिणामादीहि गुणपरिणामादिभिः कारणभूतैः । 'पुण्णं तित्थयरणामकम्मं समज्जेदि' पुण्यं तीर्थकरनामकर्म समर्जयति । कीदृक् ? 'तिलोयसंखोभयं त्रैलोक्यसंक्षोभकरणक्षमम् ॥३३०।। ।
एदे गुणा महल्ला वेज्जावच्चुज्जदस्स बहुया य ।
अप्पट्ठिदो हु जायदि सज्झायं चेव कुव्वंतो ॥३३१।। 'एदे गुणा महल्ला' एते गुणा महान्तः 'वेज्जावच्चुज्जदस्स' वैयावृत्त्योद्यतस्य । 'बहुया य' वहवः ।
marwarmmmmmmmmarrrrrrrrrrrrrr. आपत्तिको दूर करके, उनके स्वास्थ्य लाभ करके शक्ति प्राप्त करनेपर उनके संयमकी रक्षा होती है । दूसरोंकी सहायताका कथन गाथाके उत्तरार्द्धसे करते हैं। उसमें 'जम्हा' पदका अध्याहार करके इस प्रकार अर्थ होता है—यतः वैयावृत्य करनेवाला कषाय और इन्द्रियोंके दोष बतलाकर कषाय और इन्द्रियोंका निग्रह करता है, अतः वह दूसरोंको सहायता प्रदान करता है ।।३२८||
___ गा०-टी-वैयावृत्य करनेवाला उक्त प्रकारसे दूसरे साधुओंको रत्नत्रयका दान करता है इसलिए वह सातिशयदानका दाता होता है। तथा वैयावृत्यसे सम्यग्दर्शनका निर्विचिकित्सा नामक गुण प्रकाशित होता है। शरीरका मलमूत्र आदि विना ग्लानिके उठानेसे द्रव्यविचिकित्सा दूर होती है। आगममें कहे हुए धर्मका पालन करने से प्रवचनकी प्रभावना भी होती है। और संघका जो करने योग्य कार्य है उसका भी सम्पादन होता है। इस गाथासे 'कज्जपुण्णाणि' पदका व्याख्यान किया है ॥३२९॥
वैयावृत्यके फलका माहात्म्य कहते हैं
गा०-वैयावृत्यमें तत्पर साधु गुणपरिणाम आदि कारणोंके द्वारा उस तीर्थङ्कर नामक पुण्यकर्मका बन्ध करता है जो तीनों लोकोंमें हलचल पैदा करता है ।।३३०॥ ।
गा०-वैयावृत्यमें तत्पर साधुके बहुतसे महान् गुण होते हैं। जो केवल स्वाध्याय ही
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