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भगवती आराधना वर्षेण तद्वस्त्रं खंडलकब्राह्मणेन गृहीतमिति केचित्कथयन्ति । केचिदातेन पतितमुपेक्षितं जिनेनेति । अपरे वदन्ति 'विलम्बनकारिणा जिनस्य स्कन्धे तदारोपितमिति' । एवं विप्रतिपत्तिबाहुल्यान्न दृश्यते तत्त्वं । सचेललिङ्गप्रकटनार्थं यदि चेलग्रहणं जिनस्य कथं तद्विनाश इष्ट: । सदा तद्धारयितव्यम् । किं च यदि नश्यतीति ज्ञातं निरर्थकं तस्य ग्रहणं । यदि न ज्ञातमज्ञानमस्य प्राप्नोति । अपि च चेलप्रज्ञापना वाञ्छिता चेत् "आचेल'क्को धम्मो पुरिमचरिमाणं" इति वचो मिथ्या भवेत् । तथा नवस्थाने यदुक्तं "यथाहमचेली तथा होउ पच्छिमो इदि होक्खवित्ति" तेनापि विरोधः । किं च जिनानामितरेषां वस्त्रत्यागकाल: वीरजिनस्येव किन निदिश्यते, यदि वस्त्रं तेषामपि भवेत । एवं तु युक्तं वक्तं 'सर्वत्यागं कृत्वा स्थिते जिने केनचिदसं वस्त्रं निक्षिप्तं उपसागस इति ।
इदं चाचेलताप्रसाधनपरं शीतदंशमशकतणस्पर्शपरीषहसहनवचनं परीपहसूत्रेप। न हि सचेलं शीतादयो बाधन्ते । इमानि च सूत्राणि अचेलतां दर्शयन्ति
'परिणत्तेसु वत्थेसु ण पुणो चेलमादिए ।' अचेलपवरे भिक्खू जिणस्वधरे सदा ॥
सचेलगो सुखी भवदि असुखी चावि अचेलगो । अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खू ण चितए ॥ कोई कहते हैं कि एक वर्षसे कुछ अधिक होने पर उस वस्त्रको खंडलक नामके ब्राह्मणने ले लिया था। कुछ कहते हैं कि हवासे वह वस्त्र गिर गया और जिनदेवने उसकी उपेक्षा कर दी। अन्य कहते हैं कि उस पुरुषने उस वस्त्रको वीर भगवान्के कन्धेपर रख दिया। इस प्रकार बहुत विवाद होनेसे इसमें कुछ तत्त्व दिखाई नहीं देता। यदि वीर भगवान्ने सवस्त्र वेष प्रकट करनेके लिए वस्त्र ग्रहण किया था तो उसका विनाश इष्ट कैसे हुआ। सदा उस वस्त्रको धारण करना चाहिये था । तथा यह वस्त्र विनष्ट होने वाला है ऐसा उन्हें ज्ञात था तो उसका ग्रहण निरर्थक था। यदि उन्हें यह ज्ञात नहीं था तो वीर भगवान् अज्ञानी ठहरते हैं। तथा यदि चेलप्रज्ञापना इष्ट थी तो 'प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करका धर्म अचेल था' यह वचन मिथ्या ठहरता है। तथा नव स्थानमें कहा है-'जैसे मैं अचेल हुआ वैसे ही अन्तिम तीर्थङ्कर अचेल होंगे।' उससे भी विरोध आता है। तथा अन्य तीर्थङ्करोंने भी वस्त्र धारण किया था तो वीर भगवान् की तरह उनका भी वस्त्र त्यागनेके कालका निर्देश क्यों नहीं है ? इसलिए ऐसा कहना युक्त है कि जब वीर भगवान् सर्वस्व त्याग कर ध्यानमें लीन हुए तो किसीने उनके कन्धे पर वस्त्र रख दिया। यह तो उपसर्ग हुआ।
परीषहोंका कथन करनेवाले सूत्रोंमें जो शीत, डांस-मच्छर, तृणस्पर्श परीषहोंके सहनेका कथन है वह अचेलताको सिद्ध करता है । वस्त्रधारीको शीत आदि वाधा नहीं पहुँचाते । तथा ये सूत्र भी अचेलताको बतलाते हैं-'वस्त्रोंका त्याग कर देने पर भिक्षु पुनः वस्त्र ग्रहण नहीं करता। सदा भिक्षु अचेल होकर जिनरूपको धारण करता है । भिक्षु ऐसा विचार नहीं करता कि सवस्त्र सुखी होता है और अवस्त्र दुःखी होता है इसलिए मैं वस्त्र धारण करूंगा।' वस्त्र रहित साधुको कभी शीत सताता है तो वह घामको चिन्ता नहीं करता, आलस त्याग सहन करता है। मेरे
१. 'आचेलक्को धम्मो पुरिमस्य पच्छिमस्स य जिणस्स ।' बृ, कल्पम् भा० गा० ६३६९ । २. द्वस्त्रं वस्तुं नि-आ० मु० ।
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