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भगवंती आराधना वर्तमानेष्वेव रति बध्नाति न हिंसादिपरिहारोद्यतेषु । विना रतिं कथं तैः संसर्गस्तत्सेवा वा । सा हि
संसारोच्छेदकरी प्रशमकरी ज्ञानबुद्धिवृद्धिकरी। कोतिकरी पुण्यकरी संसेवा साधुवर्गस्य ॥ दर्शनमात्रमपि सतां संसारोच्छेदने भवति बीजं । कि पुनरधिकारकृता संसेवा साधुवर्गस्य । तत्सेवा यदि न स्यान्न स्याद ज्ञानागमो विना ज्ञानात् । हितकर्मप्रतिपत्तिर्न स्यान्न स्यात्ततो मोक्षः ॥ साधूपसेवनं यदि पारपर्येण मोक्षमानयति । हानिश्रमौ च नृणां को साधून्सेवमानानाम् ॥ श्रेयाः कथं न यतयो विदुषा श्रेयोथिना मनुष्येण । अक्षयमिह ये श्रेयो मुधाश्रितेभ्यः प्रयच्छन्ति ॥ इति सततमपोह्यमानमोहाविहपरलोकहितैपिणा नरेण ।
जगदधिकतपोविभूतियुक्ता यतिवृषभा विनयेन सेवितव्याः ॥ यदृच्छया जातेऽपि यतिजनसंसर्गे न गुणः न चेद्धितं शृणुयात् । यथा न वर्षस्य पात एव गुणो नरस्य अपि तु भुवि बोजबापः । तदुच्छ्रवणं गुणो यतिसमीपगमनेन । तदेवं श्रवणं दुर्लभं कथय ति । समीपमुपगतोऽपि निद्रायति ।
समीपस्थानां वचो यत्किचित् शृणोति, न रोचते, वा तद्धर्ममाहात्म्यप्रकाशनं माहोदयात् । न जानाति उसकी अनुमोदना करता है । जो हिंसा आदिमें लगे रहते हैं उन्हींसे प्रेम करता है । जो हिंसासे बचनेमें तत्पर हैं उनमें उसकी प्रीति नहीं होती। बिना प्रीति हुए कैसे उनके साथ सम्बन्ध हो सकता है अथवा कैसे उनकी सेवा कर सकता है ?
ऐसे यतिजनोंकी सेवा संसारका विनाश करती है, शान्ति प्रदान करती है, ज्ञान और बुद्धिको बढ़ाती है, यश तथा पुण्यको लाती है।
सज्जनोंका दर्शनमात्र भी संसारके विनाश करने में बीज होता है फिर साधुवर्गकी अधिकार पूर्वक को गई सम्यक् सेवा का तो कहना ही क्या है ? यदि उनकी सेवा न की जाये तो ज्ञानको प्राप्ति नहीं हो सकती। ज्ञानके बिना हितकारी कर्मोंका ज्ञान नहीं होता और हितके ज्ञान बिना मोक्ष नहीं होता। यदि साधुजनोंकी सेवा परम्परासे मोक्ष लाती है तो साधुओंकी सेवा करनेवाले मनुष्योंकी हानि और श्रम कैसे सम्भव है? कल्याणका इच्छुक ज्ञानी मनुष्य यतियोंका आश्रय क्यों न लेवे, जो निष्प्रयोजन भी आश्रय लेनेवालोंको अक्षय कल्याण प्रदान करते हैं। इसलिए इस लोक और परलोक हित चाहने वाले मनुष्यको निरन्तर मान और मोहको त्यागकर जगत्में अधिक तपकी विभूतिसे युक्त श्रेष्ठ यतियोंकी विनयपूर्वक सेवा करनी चाहिए।
__ अचानक यतिजनोंका संसर्ग होनेपर भी यदि उनसे हितकी बात न सुने तो कोई लाभ नहीं है। जैसे वर्षाके होनेसे ही मनुष्यका लाभ नहीं है किन्तु जमीनमें बीज बोने पर लाभ है। उसी तरह यतिजनके समागमका लाभ उनसे हितकी बात सुननेसे है। इस प्रकार आचार्य उपदेश सुननेको दुर्लभ कहते हैं। मनुष्य समीपमें जाकर भी सोता है। समीपमें स्थित जनोंके वचन
१. य महाश्रियो ये मुधा-आ० ।
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