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विजयोदया
इति । तथा चान्ये -- द्रष्टवधिका स्त्री विंशतिवार्षिकः पुमान् तयोः परस्परं प्रेमपूर्व हावभावविभ्रमकटाक्षकिलिकिचितादिभावपूर्वकः संयोग एव स्वर्गः नान्यः ।
स्त्रीमुद्रां मकरध्वजस्य जयिनीं सर्वार्थसंपत्करों
एनां ये प्रविहाय यान्ति कुषियः स्वर्गापवर्गेच्छया । तोषविनिहत्य ते द्रुततरं नग्नीकृता मुण्डिताः
केचिद्रक्तपटीकृताश्च जटिलाः कापालिकाश्चापरे । [श्रृं० श० पृ० ४५ ]
तथान्यैरभिहितं --- जलबुद्बुदवज्जीवाः परलोकिनोऽभावात्परलोकाभावः इति च । सत्यामपि बुद्धी समीचीन ज्ञान लोचनवता सकलप्राणिभृद्गोचरकृपापरिष्वक्तचेतसा लाभसत्कारादिनिरपेक्षेण, चतुर्गतिपरिभ्रमणप्रभवयातना सहस्रमवलोक्य प्राणभृतां परमामनुकम्पामुपगतेन हा जनो विचेतनः मिथ्यादर्शनाद्य शुभ परिणामकदम्बकमिदमस्माभिरशुभगति निर्वर्तनप्रवणमवहातव्यमित्य जानानस्तत्रैवासकृत्प्रवर्तमानो दुःख रत्नाकरमपारमुपविशत्यशरणो वराकः इति कृतसंकल्पेन यतिजनेन संसर्गो दुर्लभः । कुतः ? दर्शनमोहोदयाज्ज्ञानावरणोदयाच्च न यतिगुणान्वेति श्रद्धत्ते वा जनः । तत एव न ढौकते यतीन्न वा सुगुणमविदुषस्तदुसर्पणमुपपद्यते । अपि च चारित्रमोहोदयादसंयतै रतिरतितरां प्राणिनस्ततोऽसौ हिंसादिकं स्वयं करोति, कारयति अनुमोदते । हिंसादिषु
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मोक्ष है । यह सब मिथ्या और व्यर्थकी यन्त्रणा है । जो काम भोग प्राप्त हैं उन्हें यथेष्ट सेवन करना चाहिए। सामने वर्तमानको छोड़ दूरवर्ती की अभिलाषा क्यों ? ।'
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तथा अन्य भी कहते हैं - सोलह वर्षकी स्त्री और बीस वर्षके पुरुषका परस्परमें प्रेमपूर्वक हाव भाव, विलास, कटाक्ष, शृङ्गारादि भावपूर्वक संयोग ही स्वर्ग है । इसके सिवाय कोई दूसरा स्वर्ग नहीं है । कहा है- 'कामदेवको जीतनेवाली और समस्त अर्थ सम्पदाको करने वाली स्त्री मुद्रा है। जो कुबुद्धि स्वर्ग और मोक्षकी इच्छासे इसे छोड़कर जाते हैं वे उसके दोषोंसे सताये जाकर जल्द ही सिर मुण्डाकर नग्न हो जाते हैं । कुछ लाल वस्त्र धारण करते हैं और कुछ जटायें बढ़ाते हैं । कुछ हाथमें मनुष्य की खोंपड़ी लेकर कापालिक हो जाते हैं ।' तथा कुछ दूसरोंने भी कहा हैजीव जलके बुलबुलेके समान हैं और जब कोई परलोकी आत्मा नहीं है तो परलोक भी नहीं है । यतिजनोंका चित्त समस्त प्राणियों पर कृपा भावसे युक्त होता है, उन्हें लाभ सत्कार पुरस्कार afrat अपेक्षा नहीं होतीं । चार गतियों में परिभ्रमण से होनेवाली हजारों यातनाओंको देखकर प्राणियों में अत्यन्त दयालु हो उन्होंने संकल्प किया- 'हा, यह अज्ञानी जन --अशुभगतिमें ले जाने में समर्थ यह मिथ्यादर्शन आदि अशुभ परिणामों का समूह हमें त्यागना चाहिए' ऐसा नहीं जानते और बार-बार उसीमें प्रवृत्ति करते हुए बेचारे अशरण होकर दुःखके अपार समुद्र में प्रवेश करते हैं । उनमें बुद्धि होते हुए भी यतिजनके साथ उनका सम्बन्ध नहीं हो पाता, क्योंकि दर्शनमोहके उदय और ज्ञानावरणके उदयसे मनुष्य यतिजनोंके गुण न तो जानता है और न उनपर श्रद्धा करता है । इसीसे न तो यतियोंकी ओर देखता है और उनके गुणोंको न जाननेसे उनके पास नहीं जाता । तथा चारित्र मोहका उदय होनेसे असंयमी जनोंके प्रति उसका अत्यधिक प्रेम होता है इससे वह प्राणियोंको स्वयं हिंसा करता है, दूसरोंसे कराता है और कोई स्वयं हिंसा करता है तो
१. तथा चान्येरत आरभ्य स्त्रीमुद्रा इत्यादि श्लोक पर्यन्तं नास्ति आ० । २. संयतोऽतितरां -आ० मु० ।
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