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भगवती आराधना बलायुषी रूपगुणाश्च तादद्यावन्न रोगः समुपैति देहम् । फलस्य' लग्नस्य हि जातु तन्तोस्तावन्न पात: श्वसनो न यावत ॥ तस्मिन्स्वदेहे परिबाधमाने श्रेयः प्रकतुं न सुखेन शक्यम् ।
गृहे समन्तान्न हि वह्यमाने शक्तः प्रकतुं पुरुषोऽत्र किंचित् ॥ इति । [ ] सदा परप्राणिघातोद्यतस्तदीयप्रियतमजीवितविनाशनात् प्रायेणाल्पायुरेव भवति । आयुषश्छेदने बहूनि निमितानि--जलं, ज्वलनः, मारुतः, सर्पाः, वृश्चिकाः, रोगा, उच्छ्वासनिश्वास निरोधः, आहारालाभः, वेदनेत्येवमादीनि । ततो दीर्घमायुर्न सुलभं मनुजभवे । सामान्यवचनोऽप्यायुःशब्दः दीर्घ मनुजायुषि वर्तमानो गृहीतोऽन्यथायुर्मात्रस्य संसारिणः सुलभत्वात् । लब्धेष्वपि देशादिपु बुद्धिदुर्लभा । परलोकान्वेषणपरा बुद्धिरत्र बुद्धिशब्देनोच्यते न ज्ञानमात्रवाची । तद्धि सुलभं ज्ञानावरणेनावरुद्धबोधवीर्यस्य जलधर घटावरुद्धमण्डलस्य छायामान्यमिव दिनपतेरवि वेदकं भवति ज्ञानम् । किंचिन्मिथ्यात्वोदयाद्विपर्यस्तमुदेति विज्ञानं । नैवात्मा नाम कश्चित्कर्ता शुभाशुभयोः कर्मणोः । नापि तत्फलानुभवनिरतः, नापि परलोक: प्राप्यः कर्मवशवर्तिना कश्चिदिति । तथाभ्यधायि
लोको नायं नापरो नापि चात्मा धर्माधर्मों पुण्यपापे न चापि । स्वर्गो दृष्टः केन केनाथवा ते घोरा दृष्टा नारकाणां निवासाः ॥ बन्धः को वा कोऽथवा सोऽस्ति मोक्षो, मिथ्या सर्व यन्त्रणेयं निरर्था । प्राप्ताः कामाः सेवितव्या यथेष्टं दृष्टं त्यक्त्वा दूरगे कोऽभिलाषः ॥ [ 1
है। जैसे आकाशसे अचानक वज्रपात होता है वैसे रोग अचानक आकर शरीरका घात करता है। बल, आयु, रूपादिगुण तभी तक हैं जब तक शरीरमें रोग नहीं होता। पेड़की डालमें लगा फल तभी तक नहीं गिरता जब तक हवा नहीं चलती। उसे अपने शरीर में पीड़ा होने पर सुखपूर्वक कल्याण करना शक्य नहीं है। घरके चारों ओरसे न जलने पर ही पुरुष कुछ कर सकता है। घर भस्म हो जाने पर कुछ नहीं कर सकता।
जो सदा दूसरे प्राणियोंके घातमें तत्पर रहता है वह उनके प्रियतम जीवनका विनाश करने से प्रायः अल्प आयु वाला होता है। आयुके नष्ट होनेके बहुतसे निमित्त हैं-जल, आग, वायु, साँप, बिच्छु, रोग, श्वासोच्छ्वासका रुकना, भोजनका न मिलना, वेदना आदि । अतः मनुष्य भवमें दीर्घ आयु सुलभ नहीं है। यह आयुशब्द सामान्य आयुका वाचक होने पर भी दीर्घ मनुष्यायुके अर्थमें ग्रहण किया है। अन्यथा आयु मात्र तो संसारी जीवोंमें सुलभ हैं। देश आदि प्राप्त होने पर भी बुद्धिकी प्राप्ति दुर्लभ है । यहाँ बुद्धि शब्दसे परलोककी खोजमें तत्पर बुद्धि ग्रहण की है, ज्ञान मात्रको वाचक बुद्धि नहीं। ज्ञानमात्र तो सुलभ है। जैसे सूर्यमण्डलके मेघकी घटासे ढक जानेपर हलकी छाया रहती है वैसे ही ज्ञान शक्तिके ज्ञानावरणसे ढक जानेपर साधारण ज्ञान रहता है। मिथ्यात्वका उदय होनेसे ज्ञान विपरीत हो जाता है। यथा-आत्मा नहीं है न कोई शुभ अशुभ कर्मका कर्ता है और न कोई उसके फलका भोक्ता है। न कोई कर्मके परवश होकर परलोक जाता है। कहा है
___ 'न कोई इह लोक है, न कोई परलोक है । न आत्मा है, न धर्म अधर्म हैं, न पुण्य पाप हैं। किसने स्वर्ग देखा है और किसने वे भयानक नारकियोंके निवास देखे हैं ? कौन बन्ध है और कौन
१. फलस्य शाखा गतवृत्ततन्तो। २. रपटाव-आ० । रपप्लाव-मु० ।
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