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विजयोदया टीका
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सददादिसु वि पवित्ती आदिय अंतम्मि सो पडिक्कमदि । मज्झिमगा मण्णेति य अमज्झमाणे हवे उभयं ।। इरियं गोयर सूमिणादि सव्वमाचर मा व आचरदु ।
पुरिम चरिमेसु सव्वो सव्वं णियमा पडिक्कमदि ॥ [मूलाचार ७।३१] मध्यमतीर्थकरशिष्या दृढबुद्धयः, एकाग्रचित्ताः, अमोघलक्ष्यास्तस्माद्यदाचरितं तद्गहया शुद्धयति । इतरे तु चलचित्ता न लक्षयन्ति स्वापराधास्तेन सर्वं प्रतिक्रमणं उपदिष्टं जिनाभ्यां अंधघोटकदृष्टान्तन्यायेन ।
ऋतुपु षट्सु एककमेव मासमेकत्र वसतिरन्यदा विहरति इत्ययं नवमः स्थितिकल्पः । एकत्र चिर; कालावस्थाने नित्यमुद्गमदोषं च न परिहत्तु क्षमः । क्षेत्रप्रतिबद्धता, सातगुरुता, अलसता, सौकुमार्यभावना, ज्ञातभिक्षाग्राहिता च दोषाः । पज्जोसमणकल्पो नाम दशमः । वर्षाकालस्य चतुषु मासेषु एकत्रैवावस्थान भ्रमणत्यागः । स्थावरजंगमजीवाकुला हि तदा क्षितिः । तदा भ्रमणे महानसंयमः वाटचा शीतवातपातेन च वात्मविराधना । पतेद् वाप्यादिषु स्थाणुकण्टकादिभिर्वा प्रच्छन्नजलेन कमेन वा बाध्यत इति विंशत्यधिक लगनेपर ही प्रतिक्रमण करते हैं। इसी वातको इन गाथाओंमें कहा है) शब्दादि विषयोंमें प्रवृत्ति होनेपर आदि और अन्तिम तीर्थंकरोंके साधु प्रतिक्रमण करते ही हैं। मध्यम तीर्थ करोंके साधु करते भी हैं और नहीं भी करते । __ . . ईर्यासमिति, गोचरी और स्वप्न आदिमें अतिचार लगे या न लगे। किन्तु प्रथम तीर्थ कर और अन्तिम तीर्थंकरके शिष्य सब प्रतिक्रमण दण्डकोंको पढ़ते हैं अर्थात् अतिचार नहीं लगनेपर भी उन्हें प्रतिक्रमण करना होता है।' - ' मध्यम बाईस तीर्थंकरोंके शिष्य दृढ़ बुद्धिवाले, एकाग्रचित्त और अव्यर्थ लक्षवाले होते हैं। इसलिए अपने आचरणकी गर्दा करनेसे शुद्ध होते हैं। किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरके शिष्य चंचल चित्त होनेसे अपने अपराधोंको लक्षमें नहीं लेते। इसलिए प्रथम और अन्तिम तीर्थकरने सबके लिए प्रतिक्रमण करनेका उपदेश दिया है। इसमें अन्ध घोड़ेका दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे घोड़ेके अन्धे होनेपर अनजान वैद्यपुत्रने अपने पिताके अभावमें उसपर सब दवाइयोंका प्रयोग किया तो घोड़ा ठीक हो गया। इसी तरह अपने दोषोंसे अनजान साधु भी प्रतिक्रमणसे शुद्ध होता है।
९. छह ऋतुओंमें एक-एक महीना ही एक स्थानपर रहना और अन्य समयमें विहार करंना नवम स्थितिकल्प है। एक स्थानमें चिरकाल ठहरनेपर नित्य ही उद्गमदोष लगता है। उसे टाला नहीं जा सकता। तथा एक ही स्थानमें बहुत समयतक रहनेसे क्षेत्रसे बँध जानेका, सुखशीलता, आलसीपना, सुकुमारताको भावना तथा जाने हुएसे भिक्षा ग्रहण करनेके दोष लगते हैं। ......१०. पज्जोसमण नामक दसवाँ कल्प है। उसका अभिप्राय है वर्षाकालके चारमासोंमें भ्रमण त्यागकर एक ही स्थानपर निवास करना। उस कालमें पृथिवी स्थावर और जंगम जीवोंसे व्याप्त रहती है । उस समय भ्रमण करनेपर महान् असंयम होता है । तथा वर्षा और शीतवायुके बहनेसे आत्माकी विराधना होती है। वापी आदिमें गिरनेका भय रहता है। जलादिमें छिपे
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