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विजयोदया टीका
३३१ अदत्तस्यादानाद्विरमणं तृतीयं व्रतम् । सर्षपपूर्णायां नाल्यां तप्तायसशलाकाप्रवेशनवद्योनिद्वारस्थानेकजीवपीडासाधनप्रवेशेनेति तद्वाधापरिहारार्थं तीवो रागाभिनिवेशः कर्मबन्धस्य महतो मूलं इति ज्ञात्वा श्रद्धावतः मैथुनाद्विमरणं चतुर्थ व्रतम् । परिग्रहः षड्जीवनिकायपीडाया मूलं मूर्छानिमित्तं चेति सकलग्रन्थत्यागो भवति इति पञ्चमं व्रतम् । तेषामेव पंचानां व्रतानां पालनार्थ रात्रिभोजनविरमणं षष्ठं व्रतम् । सर्वजीवविषयमहिंसावतं अदत्तपरिग्रहत्यागौ सर्वद्रव्यविषयौ द्रव्यैकदेशविषयाणि शेषव्रतानि । उक्तं च--
'पढमम्मि सव्वजीवा तदिये चरिमे य सव्वदम्वाइं।
सेसा महव्वदा खलु तदेकदेसम्मि दन्वाणं ॥ [आवश्यक ७९१ गा०] पञ्चमहाव्रतधारिण्याश्चिरप्रजिताया अपि ज्येष्ठो भवति अधुनाप्रवजितः पुमान् इत्येष सप्तमः स्थितिकल्पः पुरुषज्येष्ठत्वं । पुरुषत्वं नाम संग्रहं उपकारं, रक्षां च कर्तु समर्थः। पुरुषप्रणीतश्च धर्मः इति तस्य ज्येष्ठता। ततः सर्वाभिः संयताभिः विनयः कर्तव्यो विरतप्य । येन च स्त्रियो लघ्व्यः परप्रार्थनीयाः, पररक्षापेक्षिण्यः, न तथा पुमांस इति च पुरुषस्य ज्येष्ठत्वं । उक्तं च
जेणित्थीह लघुसिगा परप्पसज्झा य पच्छणिज्जाय ।
भीरु अरक्खणज्जेत्ति तेण पुरिसो भवदि जेट्ठो ॥ [ ] अचेलतादिकल्पस्थितस्य यद्यतिचारो भवेत् प्रतिक्रमणं कर्तव्यमित्येषोऽष्टमः स्थितिकल्पः । नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावविकल्पेन षड्विधं प्रतिक्रमणं । भट्टिणी भट्टदारिगा इत्याद्ययोग्यनामोच्चारणं कृतवतस्तत्परि
सरसोंसे भरी हुई नलीमें तपाई हुई लोहको कोलके प्रवेशकी तरह योनिद्वारमें स्थित अनेक जीवोंको लिंगके प्रवेशसे पोड़ा होती है। उस पोड़ाको दूर करनेके लिए 'रागका तीन अभिनिवेश महान् कर्मबन्धका मूल है' ऐसा जानकर और श्रद्धा करके मैयुनसे विरत होना चतुर्थ व्रत है। परिग्रह छहकायके जोवोंको पोड़ा पहुंचानेका मूल है और ममत्वभावमें निमित्त है ऐसा जानकर समस्त परिग्रहका त्याग पाँचवाँ व्रत है । उन्हीं पाँच व्रतोंका पालन करनेके लिए रात्रि भोजनका त्याग छठा व्रत है। अहिंसावतका विषय सब जीव हैं अर्थात् सब जीवोंकी हिंसाका त्याग उसमें है। विना दी हुई वस्तुका त्याग और परिग्रहका विषय भी सब द्रव्य हैं। अर्थात् अचौर्यव्रती विना दिया हुआ कोई भी ऐसा द्रव्य नहीं लेता जिसका कोई स्वामी है। परिग्रहका त्यागी भी सब द्रव्योंका त्याग करता है। किन्तु शेष व्रत द्रव्योंके एकदेशको विषय करते हैं। कहा है
__ 'प्रथम व्रतमें सब जीव, तीसरे और अचौर्यव्रतमें सब द्रव्य तथा शेष महाव्रत द्रव्योंके एकदेशमें होते हैं।'
७. चिरकालसे दीक्षित और पाँच महाव्रतोंकी धारी आर्यिकासे तत्काल दीक्षित भी पुरुष ज्येष्ठ होता है । इस प्रकार पुरुषको ज्येष्ठता सातवाँ स्थितिकल्प है। पुरुषत्व कहते हैं संग्रह, उपकार और रक्षा करने में समर्थ होना । धर्म पुरुषके द्वारा कहा गया है इसलिए पुरुषकी ज्येष्ठता है। इसलिए सब आर्यिकाओंको साधुकी विनय करनी चाहिए। यतः स्त्रियाँ लघु होती है, परके द्वारा प्रार्थना किये जाने योग्य होती हैं । दूसरेसे अपनी रक्षाकी अपेक्षा करती हैं। पुरुष ऐसे नहीं होते इसलिए पुरुषको ज्येष्ठता है। कहा है-'यतः स्त्री लघु होती है, दूसरेके द्वारा प्रसाध्य होती है, प्रार्थनीय होती है, डरपोक होती है, अरक्षणीय होती है इसलिए पुरुष ज्येष्ठ होता है।'
८. अचेलता आदि कल्पमें स्थित साधुके यदि अतिचार लगता है तो उसे प्रतिक्रमण करना चाहिए। यह आठवाँ स्थितिकल्प है। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे छह
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