________________
विजयोदया टीका
३४३
भावसंसारस्तु सर्वजनसुखाधिगम्य इति नेह प्रतन्यते । एवंभूते संसारसागरे अनन्ते । बहुतिव्वदुक्खसलिलम्मि' शारीरं, आगन्तुकं, मानसं, स्वाभाविकमिति विकल्पेन बहूनि तीव्राणि दुःखानि सलिलानि यस्मिन् तस्मिन् संसरमाणो परिवर्तमानः । जीवो 'दुवखेण' काटेन । 'लभइ' लभते । कि 'मणुस्सत्तं' मनुष्यत्वं । मनुष्यक्षेत्रस्याल्पत्वात् सर्वजगति तिरश्चामुत्पत्तेमनुजतानिर्वर्तकानां कर्मणां कारणभूता ये परिणामास्तेषां दुर्लभत्वाच्च । के ते परिणामा इत्यत्रोच्यते
सर्व एव हि जीवपरिणामा मिथ्यात्वासंयमकपायाख्यास्त्रिप्रकारा भवन्ति । तीव्रो मध्यमो मन्द इति । कुतः कर्मनिमित्ता हि मिथ्यात्वादयः कर्माणि च तीव्रमध्यममन्दानुभवविशिष्टानि । तेन कारणभेदतः कार्याणां परिणामानां विचित्रता। तत्र ये हिंसादय: परिणामा मध्यमास्ते मनुजगतिनिर्वर्तकाः बालिकाराज्या, दारुणा, गोमूत्रिकया, कर्दमरागेण च समानाः यथासंख्यन क्रोधमानमायालोभाः परिणामाः । जीवघातं कृत्वा हा दुई कृतं, यथा दुःखं मरणं वास्माकं अप्रियं तथा सर्वजीवानां । अहिंसा शोभना वयं तु असमर्था हिंसादिकं परिहतु मिति च परिणामः । मृषा परदोष सूचनं, परगुणानामसहनं वञ्चनं वाऽसज्जनाचारः । साधूनामयोग्यवचने दुर्व्यापारे च प्रवृत्तानां का नाम साधुतास्माकमिति परिणामः । तथा शस्त्रप्रहारादप्यनर्थः परद्रव्यापहरणं, द्रव्यविनाशो हि सकलकुटुम्वविनाशो। नेतरत्र तस्माद्दुष्ट कृतं परधनहरणमिति परिणामः । परदारादिलङ्घनमस्माभिः कृतं तदतीवाशोभनं । यथास्महाराणां परग्रहणे दुःखमात्मसाक्षिकं तद्वत्तेषामिति परिणामः । यथा गङ्गादिमहानदीनां अनवरतप्रवेशेऽपि न तृप्तिः सागरस्यैवं द्रविणेनापि जीवस्य सन्तोषो नास्तीति परि
भाव संसारको तो सभी सुखपूर्वक जान लेते हैं। अतः यहाँ उसका विस्तार नहीं किया। इस प्रकारके अनन्त संसार सागरमें मनुष्य पर्याय पाना दुर्लभ है। क्योंकि मनुष्य क्षेत्र अल्प है। तिर्यञ्च तो सब जगत्में उत्पन्न होते हैं। मनुष्य पर्यायमें जन्म लेनेके कारणभूत जो परिणाम हैं वे दुर्लभ हैं। वे परिणाम कौनसे हैं यह कहते हैं-मिथ्यात्व असंयम और कषाय रूप सभी जीव परिणाम तीन प्रकारके हैं-तीव्र, मध्यम, मन्द, क्योंकि मिथ्यात्व आदि परिणाम कर्मके निमित्तसे होते हैं और कर्म तीव्र मन्द और मध्यम अनुभाग शक्तिसे युक्त होते हैं। अतः कारणके भेदसे उनके कार्य परिणामोंमें भी विचित्रता होती है। उनमेंसे जो हिंसा आदि रूप परिणाम मध्यम होते हैं वे मनुष्य गतिके कारण होते हैं। ऐसे परिणाम हैं वालकी लकीरके समान क्रोध, लकड़ीके समान मान, गोमूत्रिकाके समान माया और कीचड़के रागके समान लोभ । जीवघात करके पछताना, हा बुरा किया। जैसे दुःख और मरण हमें अप्रिय हैं उस तरह सभी जीवोंको अप्रिय हैं । अहिंसा उत्तम है किन्तु हमलोग हिंसा आदिको त्यागने में असमर्थ हैं। इस प्रकारके परिणाम मनुष्यगतिके कारण हैं। दूसरेको झंठा दोष लगाना, दूसरेके गुणोंको न सहना, ठगना ये दर्जनोंके आचार हैं। साधुओंके अयोग्य वचन और खोटे व्यापारमें लगे हम लोगोंमें साधुता कैसे संभव है इस प्रकारके परिणाम मनुष्यगतिके कारण हैं । दूसरेके द्रव्यका हरण करना शस्त्र प्रहारसे भी बुरा , है । द्रव्यका विनाश समस्त कुटुम्बका विनाश है। इसलिए दूसरेका धन हरना खोटा काम है। इस प्रकारके परिणाम मनुष्यगतिके कारण हैं। हमने जो परस्त्री आदिका सेवन किया यह बुरा किया । जैसे हमारी स्त्रियोंको दूसरे पकड़ें तो हमें दुःख होता है उसी तरह दूसरोंको भी होता है। इस प्रकारके परिणाम मनुष्य गतिके कारण हैं। जैसे गंगा आदि महा नदियोंके द्वारा रात दिन जल आने पर भी सागरकी तृप्ति नहीं होती, इसी तरह धनसे भी जीवोंको सन्तोष नहीं होता।
१. दोषस्तवनं-आ० । २. दुष्ट-आ० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org