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भगवती आराधना
दिवसरात एकत्रावस्थानमित्ययमुत्सर्गः । कारणापेक्षया तु हीनमधिकं वावस्थानं, संयतानां आषाढशुद्धदशम्यां स्थितानां उपरिष्टाच्च कार्तिकपौर्णमास्यास्त्रिशद्दिवसावस्थानं । वृष्टिबहुलतां श्रुतग्रहणं शक्त्यभाववैयावृत्त्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्टः कालः । मार्यां, दुर्भिक्षे, ग्रामजनपदचलेन वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशातरं याति । अवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यतीति । पौर्णमास्यामाषाढ्यामतिक्रान्तायां प्रतिपदादिषु दिनेषु याति । यावच्च त्यक्ता विशतिदिवसा एतदपेक्ष्य होनता कालस्य । एष दशमः स्थितिकल्पः ।
हुए ठूंठ, कण्टक आदिसे अथवा जल कीचड़ आदिसे कष्ट पहुँचता है । इसलिए एक सौ बीस दिनतक एकस्थानपर रहना उत्सर्गरूप नियम है । कारणवश कम या अधिक दिन भी ठहरते हैं । आषाढ़ शुक्लादशमीको ठहरनेवाले साधु आगे कार्तिककी पूर्णमासीके पश्चात् तीस दिन ठहर सकते हैं । वर्षाकी अधिकता, शास्त्रपठन, शक्तिका अभाव, वैयावृत्य करनेके उद्देश से एकस्थानपर ठहरनेका यह उत्कृष्टकाल है । इस बीचमें यदि मारी रोग फैल जाये, दुर्भिक्ष पड़ जाये या गच्छका विनाश होने के निमित्त मिल जायें तो देशान्तर चले जाते हैं क्योंकि वहाँ ठहरनेपर भविष्य में रत्नत्रयकी विराधना हो सकती है ।
आषाढ़ी पूर्णमासी बीतने पर प्रतिपदा आदिके दिन देशान्तर गमन करते हैं । इस तरह बीस दिन तक कम होते हैं । इस अपेक्षा कालकी हीनता होती है । यह दसवाँ स्थितिकल्प है ।
विशेषार्थ - श्वेताम्बर परम्परामें भी ये ही दस कल्प माने गये हैं । किन्तु उनमें से चार स्थितकल्प हैं और छह अस्थितकल्प हैं । शय्यात्तर पिण्ड, चातुर्याम, पुरुषकी ज्येष्ठता और कृतिकर्म ये चार कल्प स्थित हैं । अर्थात् मध्यम बाईस तीर्थंकरोंके साधु और महा विदेहोंके साधु शय्यातर पिण्ड ग्रहण नहीं करते, चतुर्याम रूप धर्मका पालन करते हैं, पुरुषकी ज्येष्ठता पालते हैं अर्थात् चिरदीक्षित आर्यिका भी उसी दिनके दीक्षित साधुको नमस्कार करती है । तथा सब कृति - कर्म करते हैं । आचेलक्क, औद्देशिक, प्रतिक्रमण, राजपिण्ड, मास और पर्युषण ये छह कल्प मध्यम तीर्थंकरोंके तथा महाविदेहके साधुओंके लिए अनवस्थित हैं । यदि वस्त्र धारण करनेसे वस्त्रको लेकर रागद्व ेष उत्पन्न होता है तो अचेल रहते हैं अन्यथा सचेल रहते हैं । साधुओं उद्देशसे बनाया भोजन उद्दिष्ट होनेसे सदोष होता है । किन्तु उक्त तीर्थंकरों और महाविदेहोंके साधु अपने उद्देशसे बना भोजन नहीं लेते । अन्य साधुओंके उद्देशसे बना भोजन ले लेते हैं । प्रतिक्रमण भी दोष लगने पर करते हैं, अन्यथा नहीं करते । राजपिण्डमें यदि कहे गये दोष होते हैं तो ग्रहण नहीं करते । यदि एक क्षेत्र में रहने पर दोष न हो तो पूर्वकोटी काल भी रहते हैं । दोष हो तो मास पूर्ण नहीं होने पर भी चल देते हैं । पर्युषणामें भी यदि वर्षामें विहार करने पर दोष हो तो एक क्षेत्रमें रहते हैं दोष न हो तो वर्षाकालमें भी विहार करते हैं । श्वेताम्बर पर - म्परामें प्राकृतमें दसवें कल्पका नाम 'पज्जोसवणा' है उसका संस्कृत रूप पर्युषणाकल्प है । इसीसे भादोंके दश लक्षण पर्वको पर्युषण पर्व भी कहते हैं । श्वेताम्बर परम्परामें भी इसका उत्कृष्ट काल आसाढ़ी पूर्णिमासे कार्तिकी पूर्णिमा तक चार मास है । जघन्य काल सत्तर दिन है । भाद्रपद शुक्ला पंचमी से कार्तिककी पूर्णिमा तक सत्तर दिन होते हैं । सम्भवत: इसीसे दिगम्बर परम्परा में पर्युषण पर्व भाद्रपद शुक्ला पंचमीसे प्रारम्भ होता है । इस कालमें साधु विहार नहीं करते ।
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