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विजयोदया टीका
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शुभेषु शुद्धेषु वा प्रवर्तयति श्रुतमनारतमुपदिशन्नतोऽसौ दर्शनस्य, चारित्रस्य तपसश्च आधारवत्त्वात् । ज्ञानमाधार 'स्तद्वानाधारवान् ॥४३०||
यस्तु ज्ञानवान्न भवति तदाश्रयणे दोषान्व्याचष्टे
'णासेज्ज अगीदत्थो चउरंगं तस्स लोगसारंगं ।
टुम्मि य चउरंगे ण उ सुलहं होइ चउरंगं ॥ ४३१ ||
'णासेज्ज अगीदत्थो' नाशेयदगृहीतसूत्रार्थः । ' तस्स' तस्य क्षपकस्य । 'चउरंगं' चत्वारि ज्ञानदर्शनचारित्रतपांसि अङ्गानि यस्य मोक्षमार्गस्य तं चतुरङ्गं । लोके यत्सारं निर्वाणं तस्याङ्गं उपकारकं । चतुरङ्गं यदि नाम नष्टं तथापि तच्चतुरङ्गं पुनर्लभ्येत इति शङ्कामिमां निरस्यति । 'नट्टम्मि य चउरंगे' नष्टे इह जन्मनि चतुरङ्गे मुक्तिमार्गे । 'ण उ सुलहं होदि चउरंग' नैव सुखेन लभ्यते तच्चतुरङ्गं । विनाशितचतुरङ्गो मिथ्यात्वपरिणतः कुयोनिमुपगतः कथमिव लभते चतुरङ्ग इत्यभिप्रायः ॥ ४३१ ॥
क्षपकस्य चतुरङ्गं कथमगृहीतार्थो नाशयतीत्यारेकायामित्यमसौ नाशयतीति दर्शयतिसंसारसायरम्मिय अनंतबहुतिव्वदुक्खसलिलम्मि । संसरमाणो दुक्खेण लहदि जीवो मणुस्सत्तं ||४३२|| तह चैव देसकुलजाइरूवमारोग्गमाउगं बुद्धिं ।
सवणं गहणं सड्ढा य संजमो दुल्लहो लोए || ४३३॥
जो ज्ञानवान् है वह आधारवान् है ॥४३० ॥
जो ज्ञानवान् नहीं है उसका आश्रय लेनेमें दोप कहते हैं
गा० - टी० -- जिसने सूत्रके अर्थको ग्रहण नहीं किया है ऐसा आचार्य उस क्षपकके चतुरंगको नष्ट कर देता है | ज्ञान दर्शन चारित्र तप ये चार अंग जिस मोक्षमार्गके होते हैं वह चतुरंग है । लोक में जो सारभूत निर्वाण है उसका चतुरंग - मोक्षमार्ग उपकारक है । वह नष्ट कर देता है । शायद कोई कहें कि यदि चतुरंग नष्ट हुआ तो पुनः प्राप्त हो जायेगा ? इस शंकाका निरास करते हैं- हैं - इस जन्ममें चतुरंग मोक्षमार्गके नष्ट होने पर चतुरंग सुलभ नहीं है - सुखसे नहीं मिलता । क्योंकि जो चतुरंगको नष्ट कर देता है वह मिथ्यात्व रूप परिणत होकर कुयोनिमें चला जाता है । तब वह कैसे चतुरंगको प्राप्त कर सकता है यह उक्त कथनका अभिप्राय है || ४३१||
सूत्र के अर्थको ग्रहण न करने वाला आचार्यं क्षपकके चतुरंगको कैसे नष्ट करता है ? ऐसी आशंका करने पर बतलाते हैं कि वह इस प्रकार नष्ट करता है
गा०—जिसमें अनन्त अत्यन्त तीव्र दुःखरूप जल भरा है उस संसार सागर में भ्रमण करते हुए जीव बड़े कष्टसे मनुष्य भव प्राप्त करता है ||४३२ ||
गा० - उस संसार में देश, कुल, जाति, रूप, आरोग्य, आयु, बुद्धि, धर्मका सुनना, उसे ग्रहण करना, उस पर श्रद्धा होना तथा संयम ये सब दुर्लभ हैं || ४३३||
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१. स्तद्वानाधारवान् श्रद्धानाधारवान् आ० मु० । २ इयं गाथा व्यवहारसूत्रे ( उ०३, गा० ३७७ )
अस्ति ।
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