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भगवती आराधना एवमवि दुल्लहपरंपरेण लघृण संजमं खवओ । ण लहिज्ज सुदी संवेगकरी अबहुसुयसयासे ।।४३४।। सम्म सुदिमलहंतो दीहद्धं मुत्तिमुवगमित्ता वि । परिवडइ मरणकाले अकदाधारस्स पासम्मि ॥४३५॥ सक्का वंसी छेत्तु तत्तो उक्कड्ढिओ पुणो दुक्खं । इय संजमस्स वि मणो विसएसुक्कडिदुदुक्खं ॥४३६।। आहारमओ जीवो आहारेण य विराघिदो संतो। अट्टदहट्टो जीवो ण रमदि णाणे चरित्ते य ॥४३७।। सुदिपाणयेण अणुसट्ठिभोयणेण य पुणो उवग्गहिदो । तण्हाछुहाकिलंतो वि होदि झाणे अवक्खित्तो ॥४३८।। पढमेण व दोवेण व वाहिज्जंतस्स तस्स खवयस्स ।
ण कुणदि उवदेसादिं समाधिकरणं अगीदत्थो ।।४३९।। 'पढमेण वा' क्षधा। 'दोवेण वा' पिपासया वा । 'बाधिज्जंतस्स तस्स' वाध्यमानस्य तस्य । 'खवयस्स' क्षपकस्यः। 'न कुणदि उवदेसादि' न करोत्युपदेशादि । 'समाधिकरणं' समाधिः क्रियते येनोपदेशादिना तं । 'अगोदत्यो' अगृहीतार्थः ॥४३९॥
__ गा०—इस प्रकार परम्परा रूपसे दुर्लभ संयमको पाकर क्षपक अल्पज्ञानी आचार्यके पासमें वैराग्य करने वाली देशना नहीं प्राप्त करता ॥४३४।।
गा०-सम्यक् उपदेश प्राप्त न करनेसे चिरकाल तक असंयमके त्यागपूर्वक संयमको धारण करके आधारवत्त्व गुणसे रहित आचार्यके पासमें मरते समय संयमसे गिर जाता है ।।४३५।।
गा०-जैसे छोटेसे बाँसको छेदना शक्य है। किन्तु बाँसोंके झाड़मेंसे खींचकर निकालना बहुत कठिन है । इसी तरह संयमीका भी मन विषयोंसे हटाना अल्प ज्ञानी गुरुके लिए कठिन है । आशय यह है कि यद्यपि क्षपकने रागद्वषको जीतनेकी प्रतिज्ञा की तथापि शरीरकी सल्लेखना रनपर जब भूख प्यासको परोषह सताती है तो वह श्रुतज्ञानमें उपयोग लगाये विना अल्पज्ञ आचार्यके पासमें राग-द्वषमें पड़कर चारित्रका आराधक नहीं रहता ॥४३६।।
गा०—यह जीव आहारमय है, अन्न ही इसका प्राण है। आहारके न मिलनेपर आर्त और रौद्रध्यानसे पीड़ित होकर ज्ञान और चारित्रमें मन नहीं लगाता ॥४३७||
गा०-किन्तु ज्ञानी आचार्यके द्वारा श्रुतका पान करानेसे और योग्य शिक्षारूप भोजनसे उपकृत होनेपर भूख प्याससे पीड़ित होते हुए भी ध्यानमें स्थिर होता है ॥४३८||
__ गा०-भूख और प्याससे पीड़ित उस क्षपकको अल्पज्ञानी आचार्य समाधिके साधन उपदेश आदि नहीं करता ।।४३९।।
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