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विजयोदया टीका
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दुष्टेभ्यः संयतोपघातः । भद्राः पलायमानाः स्वयं दुःखिताः पातेन अभिघातेन वा वतिनो मारयन्ति वा धावनोल्ल
धनादिपराः प्राणिनः। आरण्यकास्तु व्याघ्रक्रव्यादद्वीपिनो, वानरा वा राजगृहे बन्धनमुक्ता यदि क्षद्रास्तत आत्म विपत्तिर्भद्राश्चेत्तत्पलायने पूर्वदोषः । मानुषास्तु ईश्वराः तलवरा म्लेच्छाः, भटाः, प्रेष्याः, दासाः दास्यः, इत्यादिकाः । तैराकुलत्वात् दुःप्रवेशनं राजगृहं प्रविशन्तं मत्ताः, प्रमत्ताः, प्रमुदिताश्च दासादयः उपहसन्ति, आक्रोशन्ति वारयन्ति उल्लङ्घयंति वा । अवरुद्धा याः स्त्रियो मैथुनसंज्ञया बाध्यमानाः पुत्रार्थिन्यो वा बलात्स्वगृहं प्रवेशयन्ति भोगार्थम् । विप्रकीर्णं रत्नसुवर्णादिकं परे गृहीत्वा अत्र संयता आयाता इति दोषमध्यारोपयन्ति । राजा विश्वस्तः श्रमणेषु इति श्रमणरूपं गृहीत्वागत्य दुष्टाः खलीकुर्वन्ति । ततो रुष्टा अविवेकिनः दूषयन्ति श्रमणान्मारयन्ति बध्नन्ति । वा एते परसमुद्भवा दोषाः । आत्मसमुद्भवास्तूच्यन्ते । राजकुले आहारं न शोधयति अदृष्टमाहृतं च गृह्णाति । विकृतिसेवनादिंगालदोषः, मन्दभाग्यो वा दृष्ट्वानय॑ रत्नादिकं गृह्णीयाद्वामलोचना वा 'सुरूपाः समवलोक्यानुरक्तस्तासु भवेत् । तां विभूति, अन्तःपुराणि, पण्याङ्गना वा विलोक्य निदानं कुर्यात् । इति दोषसंभवो यत्र तत्र राजपिण्डग्रहणप्रतिषेधो न सर्वत्र प्रकल्प्यते । ग्लानार्थ राजपिण्डोऽपि दुर्लभं द्रव्यं । अगाढकारणे वा श्रुतस्य व्यवच्छेदो माभूदिति ।।
___ चरणरथेनापि विनयो गुरूणां महत्तराणां शुश्रूषा च कर्तव्येति पञ्चमः कृतिकर्मसंज्ञितः स्थितिकल्प' । या चोट खाकर स्वयं दुःखी होते हैं अथवा दौड़ते हुए व्रतियोंको मारते हैं । जंगलके रहने वाले व्याघ्र, सिंह, बन्दर यदि राजाके आँगनमें खुले घूमते हों और क्षुद्र हों तो उनसे अपने पर विपत्ति आ सकती है । यदि भद्र हुए तो यतिको देखकर दौड़ने पर स्वयं चोट खा सकते हैं या यतियोंको चोट पहुंचा सकते हैं । मनुष्य स्वामी, कोतवाल, म्लेच्छ, योद्धा, सेवक दास दासी आदि अनेक हैं । राजाका घर इन सबसे भरा होनेसे उसमें प्रवेश करना कठिन है। मत्त, प्रमत, और हर्षसे उत्फुल्ल दास आदि यतिको देखकर हँसते हैं, चिल्लाते हैं, रोकते हैं, अवज्ञा करते हैं। कामसे पीड़ित स्त्रियाँ अथवा पुत्र प्राप्तिकी इच्छुक स्त्रियाँ बलपूर्वक भोगके लिए साधुको अपने घरमें ले जाती हैं । राजगृहमें पड़े हुए रत्न सुवर्ण आदिको दूसरे ग्रहण करके यह दोष लगा सकते हैं कि यहाँ साधु आये थे। राजाका श्रमणों पर विश्वास है ऐसा जानकर दुष्ट लोग श्रमणका रूप रखकर दष्ट काम कर सकते हैं। तब रुष्ट होकर अविवेकी पुरुष श्रमणोंको दोष देते हैं, उन्हें मारते और बाँधते हैं। ये परसे उत्पन्न हए दोष हैं। . अब आत्मासे हुए दोष कहते हैं-राजकुलमें आहारका शोधन नहीं होता, बिना देखा और छीना हुआ आहार ग्रहण करना होता है। सदोष आहार लेनेसे इंगाल दोष होता है। कोई अभागा साधु बहुमूल्य रत्नादि देखकर उठा सकता है अथवा सुन्दर स्त्रियोंको देखकर उनपर अनुरक्त हो सकता है । उस विभूति, अन्तःपुर और बाजारू स्त्रियोंको देखकर निदान कर सकता है कि मुझे भी ये वस्तुएँ प्राप्त हों । इस प्रकारके दोष जहाँ संभव हों वहाँ राजाका आहार नहीं लेना चाहिए । सर्वत्र लेनेका निषेध नहीं है । रोगीके लिए राजपिण्ड भी दुर्लभ होता है। अथवा कोई ऐसा कारण उपस्थित हो कि साधका मरण बिना भोजनके होता हो और साधके मरनेसे श्रुतका विच्छेद होता हो तो राजपिण्ड ले सकते हैं कि श्रुतका विच्छेद न हो।
५ चारित्रमें स्थित साधुके द्वारा भी महान् गुरुओंकी विनय सेवा करना पाँचवाँ कृतिकर्म नामक स्थितिकल्प है।
१. वानुरूपाः आ० मु० । २. गीतार्थे-आ० । ४२
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