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भगवती आराधनां
उवधि पावेज्ज इति । तथा वत्थसणाए वुत्तं 'तत्थ एसे हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज पडिलेहणगं विदियं, तत्थ एसे जुग्नि देसे दुवे वत्थाणि धारिज्ज पडिलेहणगं तदियं । तत्थ एसे परिस्सहं अणधिहासएस (अणहिवासए) तओ वत्थाणि धारेज्ज पडिलोहणं चउत्थं ।" तथा पादेसणाए कथितं "हिरिमणे वा जुग्गिदे चावि अण्णगे वा तस्स णं कप्पदि वत्थादिकं पादचारित्तए इति" । पुनश्चोक्तं तत्रैव-"अलाबुपत्तं वा, दारुगपत्त वा मट्टिगपतं वा अप्पपाणं, अप्पबीजं अप्पसरिदं तथा अप्पकारं पात्रलाभे सति पडिग्गहिस्सामीति"। वस्त्रपात्रे यदि न ग्राह्य कथमेतानि सूत्राणि नीयन्ते । भावनायां चोक्तं-"बरिसं चीवरधारि तेन परमचेलके तु जिणे" इति । तथा सूत्रकृतस्य पुंडरीके अध्याये कथितं 'ण कहेज्जो धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदुमिति ।
निसेवेप्युक्तं-"कसिणाइ3 वत्थकंवलाई जो भिक्खु पडिग्गहिदि आपज्जदि मासिगं लहुगं' इति । एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कथं इत्यत्रोच्यते-आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया । भिक्षूणां हीमानयोग्य शरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्वमाननवीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति । कटासन (चटाई) इनमेंसे कोई एक उपधि पाता है। तथा वस्त्रषणामें कहा है-'जो लज्जाशील हो वह एक वस्त्र धारण करे, दूसरा प्रतिलेखना। देश विशेष में दो वस्त्र धारण करे, तीसरा प्रतिलेखना धारण करे। जो परीषह सहने में असमर्थ हो वह तीन वस्त्र और चतुर्थ प्रतिलेखना धारण करे।'
तथा पात्रषणामें कहा है-'जो लज्जाशील आदि है और पादचारी है उसके लिये वस्त्रादि योग्य हैं।' पुनः उसीमें कहा है
'तुम्बीका पात्र, लकड़ीका पात्र अथवा मिट्टीका पात्र, पात्रलाभ होनेपर ग्रहण करूँगा जो अल्पबीज आदि हो।
यदि वस्त्र पात्र ग्रहण करने योग्य न होते तो ये सूत्र कैसे होते ? भावनामें कहा हैभगवान् जिनने एक वर्ष तक देव दृष्य वस्त्र धारण किया। उसके पश्चात् अचेलक (निर्वस्त्र) रहे। तथा सूत्र कृतांगके पुण्डरीक अध्ययनमें कहा है-'वस्त्र पात्र आदिकी प्राप्तिके लिये धर्मकथा नहीं कहनी चाहिये ।' निशीथ सूत्र में कहा है-'जो भिक्षु पूर्ण वस्त्र कम्बल ग्रहण करता है वह मासिक लघु प्रायश्चित्त के योग्य है।' इस प्रकार सूत्र ग्रन्थोंमें चेलका निर्देश होते हुए अचेलता कैसे संभव है ?
इसका उत्तर देते हैं-कारणकी अपेक्षा आर्यिकाओंको आगममें वस्त्रकी अनुज्ञा है। भिक्षुओंमेंसे यदि किसीके शरीरका अवयव लज्जा योग्य हो, अथवा लिंगके मुंह पर चर्म न हो या अण्डकोष लम्बे हों, अथवा परीषह सहने में असमर्थ हो तो वह वस्त्र ग्रहण करता है। आचारांग में कहा है
'आयुष्मान्' मैंने सुना, भगवान्ने ऐसा कहा। यहाँ संयमके अभिमुख स्त्री पुरुष दो प्रकार के होते हैं-एक सर्वश्रमणागत, एक नो सर्वश्रमणागत । उनमेंसे जो सर्वश्रमणागत, स्थिर अंग हाथ-पैरवाले तथा सब इन्द्रियोंसे पूर्ण होते हैं उनको एक भी वस्त्र धारण करना योग्य नहीं है केवल एक पीछी रखते हैं। तथा कल्प सूत्रमें कहा है-'लज्जाके कारण और शरीरके अंगके ग्लानियुक्त होने पर तथा परीषहोंको सहने में असमर्थ होने पर वस्त्र धारण करे ।'
१. वद्धसणाए अ० आ० । २. जुग्गिदे दे-मु० । ३. जे भिक्खकसिणाई वत्थाई घरेइं धरेतं वा सातिज्जति ||-निशीथसू० १२३ ।
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