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विजयोदया टीका
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सचैलस्य । स्वस्य वस्त्रप्रावरणादेः स्वयं प्रक्षालनं सीवनं वा कुत्सितं कर्म, विभूषा, मूर्च्छा च । लाघवं च गुणः । अचेलोऽल्पोपधिः स्थानासनगमनादिकासु क्रियासु वायुवदप्रतिबद्धो लघुर्भवति नेतरः । तीर्थकराचरितत्वं च गुणः - संहननवलसमग्रा मुक्तिमार्ग प्रख्यापनपरा जिनाः सर्व एवाचेला भूता भविष्यंतश्च । यथा मेर्वादिपर्वतगताः प्रतिमास्तीर्थकर मार्गानुयायिनश्च गणधरा इति तेऽव्यचेलास्तच्छिष्याश्च तथैवेति सिद्धमचेलत्वं । चेलपरिवेष्टिताङ्गो न जिनसदृशः । व्युत्सृष्टप्रलम्बभुजो निश्चेलो जिनप्रतिरूपतां धत्ते । अनिगूढबलवीर्यता च गुणः । परीषहसहने शक्तोऽपि सचेलो न परीषहान्सहते इति । एवमेतद्गुणावेक्षणादचेलता जिनोपदिष्टा । चेलपरिवेष्टिताङ्ग आत्मानं निर्ग्रन्यं यो वदेत्तस्य किमपरे पाषण्डिनो न निर्ग्रन्थाः ? वयमेव न ते निर्ग्रन्था इति वाङ्मात्रं नाद्रियते मध्यस्थैः । इत्थं चेले दोषा अचेलतायां वा अपरिमिता गुणा इति अचेलता स्थितिकल्पत्वेनोक्ता ।
अथैवं मन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम् । तथा ह्याचारप्रणिधी भणितं ' - " पडिलेखे पात्रकंबलं तु ध्रुवमिति । असत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्रुवं क्रियते ।" आचारस्यापि द्वितीयाध्यायो लोकविचयो नाम, तस्य पञ्चमे उद्देशे एवमुक्तं — पडलेह पादपुखणं, उग्गहं, कडासणं, अण्णदरं सीना, बाँधना, रंगना इत्यादि अनेक परिकर्म करने होते हैं। अपने वस्त्र, ओढ़ने वगैरह को स्वयं धोना, सीना ये कुत्सित कर्म तथा शरीरको भूषित करना ममत्व आदि परिकर्म करने होते हैं । लाघव गुण भी अचेलता में हैं । अचेलके पास थोड़ा परिग्रह होता है । उठना बैठना जाना आदि क्रियाओं में वह वायुको तरह बेरोक और लघु होता है, सवस्त्र ऐसा नहीं होता । तीर्थंकरोंके मार्ग का आचरण करना भी अचेलताका गुण है । संहनन और बलसे पूर्ण तथा मुक्तिके मार्गका उपदेश देने में तत्पर सभी तीर्थंकर अचेल थे तथा भविष्य में भी अचेल ही होंगे। जैसे मेरु आदि पर्वतों पर विराजमान जिन प्रतिमा और तीर्थंकरोंके मार्गके अनुयायी गणधर भी अचेल होते हैं । उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं। इस प्रकार अचेलता सिद्ध होती है । जिसका शरीर वस्त्रसे वेष्ठित है वह तीर्थंकरके समान नहीं है । जो दोनों भुजाओंको लटका कर खड़ा है और वस्त्र रहित है वह जिनके समान रूपका धारी होता है । अपने बल और वीर्यको न छिपाना भी अलताका गुण है । सवस्त्र परीषहोंको सहने में समर्थ होते हुए भी परीषहों को नहीं सहता । इस प्रकार उक्त गुणोंके कारण अचेलता जिनदेवके द्वारा कही गई है। जो अपने शरीरको वस्त्र वेष्टित करके अपनेको निर्ग्रन्थ कहता है उसके अनुसार अन्य मतानुयायी साधु निर्ग्रन्थ क्यों नहीं हैं । हम ही निर्ग्रन्थ हैं वे निर्ग्रन्थ नहीं हैं यह तो कहना मात्र है । मध्यस्थ पुरुष इसे नहीं मानते । इस प्रकार वस्त्र में दोष और अचेलतामें अपरिमित गुण होनेसे अचलताको स्थितिकल्परूपसे कहा है ।
यदि आप मानते हैं कि पूर्व आगमोंमें वस्त्र पात्र आदिके ग्रहणका उपदेश है । जैसे आचार प्रणिधिमें कहा है - ' पात्र और कंबलकी प्रतिलेखना अवश्य करना चाहिये ।' यदि पात्रादि नहीं. होते तो उनकी प्रतिलेखना आवश्यक कैसे की जाती । आचारांगका भी दूसरा अध्याय लोक विचय नामक है । उसके पाँचवें उद्देशमें कहा है- 'प्रतिलेखना, पैर पूछना, उग्गह ( एक उपकरण ),
१. प्रतिलिखे - मु० ।
२. 'वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं उग्गहणं च कडासणं एएसु चैव जाणिज्जा' | आचा० २/५/१०/
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