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विजयोदयाटीका
३०१ ण य जायंति असंता गुणा विकत्थंतयस्स पुरिसस्स ।
धंति हु महिलायंतो व पंडवो पंडवो चेव ॥३६४।। 'ण य जायंति असंता गुणा' नैवोत्पद्यन्ते असंतो गुणाः । विकत्थंतयस्स स्तुवतः । 'धंति' नितरां 'महिलायंतो व' वामलोचनेव आचरन्नपि । 'पंडगो पंडगो चेव' षंढः षंढः एव भवति न युवतिः ॥३६४॥
संतं सगुणं कित्तिज्जंतं सुजणो जणम्मि सोदण ।
लज्जदि किह पुण सयमेव अप्पगुणकित्तणं कुज्जा ॥३६५।। 'संतं सगुणं कित्तिज्जतं' विद्यमानमपि स्व गुण कीर्त्यमानं । 'सुजणो जणम्मि सोदूण' साधुजनस्य मध्ये श्रुत्वा । 'लज्जइ' व्रीडामुपैति । 'किह पुण' कथं पुनः ‘सयमेव अप्पगुणकित्तणं कुज्जा' स्वयमेवात्मनो गुणकीर्तनं कुर्यात् ॥३६५॥ स्वगुणासंकीर्तने गुणमाचष्टे
अविकत्थंतो अगुणो वि होइ सगुणो व सुजणमज्झम्मि ।
सो चेव होदि हु गुणो जं अप्पाणं ण थोएइ ।।३६६।। 'अविकत्यंतो अगुणो वि होइ' अकीर्तयन् स्वयमगुणोऽपि भवति । 'सगुणो व' गुणवानिव । 'सुजणमज्झम्मि' सुजनमध्ये । परस्परव्याहतमिदं वचः 'अगुणस्स गुण' इति एतस्यामाशंकायामाह-'सो चेव होदि गुणो' स एव गुणो भवति । 'जं अप्पाणं ण थोएदि' यदात्मानं न स्तीति । समीचीनज्ञानदर्शनादिगुणाभावानिर्गुणाः, आत्मप्रशंसाऽकरणगुणेन गुणवानिति भावार्थः ।।
यदि सन्ति गुणस्तस्य निकषे सन्ति ते स्वयम् ।
न हि कस्तूरिकागन्धः शपथेन विभाव्यते ॥ [ ] ॥३६६॥ वायाए जं कहणं गुणाण तं णासणं हवे तेसिं । होदि हु चरिदेण गुणाणकहणमुब्भासणं तेसिं ॥३६७।।
गा०-अपने गणोंकी प्रशंसा करने वाले परुषमें अविद्यमान गण प्रशंसा करनेसे उत्पन्न नहीं होते ! स्त्रीकी तरह खूब हाव-भाव करने पर भी नपुंसक नपुंसक ही रहता है, युवति नहीं वन जाता ॥३६४॥
___ गा०-सज्जन मनुष्योंके बीचमें अपने विद्यमान भी गुणकी प्रशंसा सुनकर लज्जित होता है । तब वह स्वयं ही अपने गुणोंकी प्रशंसा कैसे कर सकता है ॥३६५।।
अपने गुणोंकी प्रशंसा न करनेके गुण कहते हैं
गा०-अपनी प्रशंसा न करनेवाला स्वयं गुणरहित होते हुए भी सज्जनोंके मध्यमें गुणवान्की तरह होता है। गुणरहितको गुणवान कहना तो परस्पर विरुद्ध है, ऐसी आशंका करनेपर कहते हैं-वह जो अपनी प्रशंसा नहीं करता यही उसका गुण है। भावार्थ यह है कि सम्यग्ज्ञानदर्शन आदि गुणोंका अभाव होनेसे वह गुणरहित हैं किन्तु अपनी प्रशंसा न करनेके गुणसे गुणवान् है। 'यदि उसमें गुण हैं तो वे स्वयं कसौटीपर कसे जायेंगे। कस्तूरीकी गन्धके लिए शपथ करना नहीं होता ॥३६६॥
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